8-7-2025Vattttttadi

 

                                        
                                                प्रकृति जीवन और प्रतिरोधक क्षमता !
  
     मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |जिस प्रकार से  किसी कारखाने में बिजली बार बार आने जाने लगे तो मशीनें कभी बहुत तेज भागेंगी और कभी बंद होने लगेंगी | ऐसे समय उनमें आग न  लग जाए या वे मशीनें बिगड़ न जाएँ |इसके लिए या तो मशीनें  बंद कर दी जाएँ या फिर जनरेटर आदि वैकल्पिक ऊर्जा से उन्हें चलाते रहा जाए | 
     इसीप्रकार से वात पित्त आदि का प्रभाव जब अचानक बढ़ने घटने लगता है तब उस कारखाने की मशीनों की तरह  प्राकृतिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगती है | इस असंतुलन से  भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ घटित होने लगती हैं |इसी प्रकार के अवरोध से रोग महारोग (महामारी) जैसी घटनाएँ घटित होने लगती हैं |      ऐसे समय में मशीनों को सुरक्षित रखते हुए चलाते रहने के लिए जिस प्रकार से जनरेटर आदि वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग किया जाता है | उससे मशीनें भी नहीं बिगड़ती हैं और काम भी चलता रहता है | यह वैकल्पिक ऊर्जा ही  प्रतिरोधक क्षमता  है जो प्राकृतिक असंतुलन में भी प्रकृति और जीवन को सुरक्षित बचाए रखती है और सभी कार्य भी संचालित होते रहते हैं |  
      कुल मिलाकर प्रतिरोधक क्षमता से हमारा आशय ऐसी परोक्षऊर्जा से है जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले परोक्षस्रोत  समयप्रभाव से कुछ समय के लिए अचानक अवरुद्ध होने लग  जाएँ, अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने लगे | ऐसे समय यह परोक्षऊर्जा (प्रतिरोधक) क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख सके |  
     प्रतिरोधक क्षमता जब मजबूत होती है तब प्रकृति और जीवन में कई बार ऐसी बड़ी बड़ी प्राकृतिक या मनुष्यकृत दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं | उन दुर्घटनाओं में बुरी तरह प्रभावित होकर भी कुछ लोग बाल बाल बच जाते हैं | जिनमें किसी को बचने की आशा ही नहीं होती है | ये उनकी अपनी प्रतिरोधक क्षमता का ही प्रभाव होता है | जहाँ मनुष्यकृत किसी भी शक्ति का कोई बश नहीं चलता है | वहाँ से भी  यह परोक्ष ऊर्जा  व्यक्ति को सुरक्षित बचाकर लाती है | शरीरों में  यह मनुष्यों के अपने अपने सदाचरणों से मिर्मित होती है | किसी देश प्रदेश आदि में उसके शासक के सदाचरणों से निर्मित  होती है | इसलिए प्रत्येक शासक एवं आमजन  को  प्रतिपल अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते रहना चाहिए |  
      शासकों की इसी प्रतिरोधक क्षमता के प्रभाव से भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ बहुत वेग से आकर भी अपनी सीमा लाँघती नहीं हैं  | भूकंप की तीव्रता यदि 15 या 20 तक भी पहुँच जाए तो मनुष्य उसे रोक भले न सकते हों किंतु मनुष्यों की सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक घटनाओं को नियंत्रित करके रखती है | यदि ऐसा न होता तो भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ कभी भी कितना भी भयानक हिंसक स्वरूप धारण कर सकती हैं |  ऐसा ही प्राणियों के साथ भी हो सकता है | बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ घटित होती हैं | उनसे बहुत लोग प्रभावित और पीड़ित भी होते हैं ,किंतु उनसे संपूर्ण सृष्टि कभी समाप्त नहीं होती है | ये प्रतिरोधक क्षमता का ही अनुशासन है| प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता प्रकृति और जीवन दोनों को ही होती है | इसलिए इसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न निरंतर करते रहना चाहिए | 
     प्राकृतिकरूप से भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ तो अपने अपने  निर्द्धारित समय पर घटित होती ही रहती हैं | प्रतिरोधक क्षमता जब जितनी कमजोर रहती है तब उनका वेग उतना ही अधिक बढ़ जाता है | वे उतनी ही अधिक हिंसक हो जाती हैं |यदि सामूहिक रूप से प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है तब भी पूर्व निर्द्धारित घटनाओं को तो घटित होना ही होता है ,किंतु प्रतिरोधक क्षमता के प्रभाव से उनका वेग बहुत कम हो जाता है | जिससे प्रतीक रूप में वे घटित होकर निकल जाती हैं | सभी प्राणी सुरक्षित बने रहते हैं | 
      प्रकृति और जीवन को सुरक्षित चलाने में प्रमुख प्रतिरोधक क्षमता ही है | प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने पर उस प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के न घटित होने पर भी लोग रोगी होते देखे जाते हैं | प्रतिरोधक क्षमता जिनकी अपनी समाप्त हो जाती है उनका जीवन पूरा हो जाता है | 
       प्रतिरोधक क्षमता के स्वभाव शक्ति एवं बढ़ने घटने का कारण समझे बिना  प्राकृतिक घटनाओं एवं प्राकृतिक रोगों के बिषय में न तो पूर्वानुमान लगाया जा सकता है  और न ही इन्हें समझा जा सकता है | किसी भी घटना या रोग को समझे बिना न तो उससे सुरक्षा के उपाय  सोचे जा सकते हैं  और न ही ऐसे प्राकृतिक रोगों से सुरक्षा के लिए औषधि बनाई जा सकती है | जिस रोग की प्रकृति ही नहीं पता होगी उसके लिए चिकित्सा की व्यवस्था कैसे की जा सकती है |  
            प्रतिरोधक क्षमता  कमजोर होते ही असंतुलित होने लगते हैं वातादि दोष 
    त्रिदोषों का संतुलित  होना आवश्यक होता  है| जब तक ऐसा होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ  रहने तक प्राकृतिक उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है,अर्थात ऐसा अवसर जब तक  रहता  है तबतक भूकंप आँधी तूफान अति वर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है | ऐसी घटनाएँ यदि घटित होती भी हैं तो उनका वेग बहुत कम होता है | इसलिए उनसे जनधन हानि बहुत कम या फिर बिल्कुल नहीं होती है | 
     प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही यह समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक वातावरण में प्रतिरोधक क्षमता दिनोंदिन कमजोर हो रही है | ऐसे समय भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी हिंसक घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में बार बार घटित होते देखी जाती हैं |       
     ऐसे ही प्राणियों में प्रतिरोधक क्षमता घटने के कारण स्वास्थ्य बिपरीत  बड़ी बड़ी घटनाएँ घटित होने लगती हैं | छोटे छाटे कारणों से बड़े बड़े रोग होने लगते हैं | छोटे छोटे रोग बहुत जल्दी बड़े बड़े स्वरूप धारण करते देखे जाते हैं | ऐसे रोगियों पर चिकित्सा का प्रभाव बहुत कम या कई बार तो बिल्कुल नहीं पड़ता है | सघन चिकित्सा का लाभ लेते हुए भी छोटे छोटे रोगों को बड़े बड़े स्वरूप धारण करते देखा जाता है | ऐसे लक्षण सामूहिक या व्यक्तिगत प्राकृतिक रोगों या महारोगों (महामारी) के आने के कुछ वर्ष पहले से घटित होते देखे जाते हैं |         
     प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही  शरीर इसीक्रम  में धीरे धीरे रोगी होते चले जाते हैं | बहुत लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ  घटित होते देखी जाती हैं| प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |
    कुल मिलाकर  मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |प्रतिरोधक क्षमता से हमारा आशय ऐसी ऊर्जा से है | जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले स्रोत  कुछ समय के लिए अचानक अवरुद्ध हो जाएँ | !अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने लगे | ऐसे समय यह प्रतिरोधक क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख सके | इसके लिए त्रिदोषों का संतुलित  होना आवश्यक होता  है| जब तक ऐसा होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ  रहने पर प्राकृतिक उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है|ऐसा अवसर जब तक  रहता  है तबतक भूकंप आँधी तूफान अतिवर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है | 
   प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया प्रारंभ होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में घटित होते देखी जाती हैं |प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता घटने लगती है |जो हमेंशा नहीं देखी  जाती हैं |यह प्रक्रिया महामारी आने के कुछ वर्ष पहले ही  प्रारंभ हो जाती है |प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही   इसीक्रम  में धीरे धीरे शरीर रोगी होते चले जाते हैं | कुछ लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ  घटित होते देखी जाती हैं| 
प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |    
      कुलमिलाकर त्रिदोषों की साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्सा शास्त्र का उद्देश्य है |     
     सामान्यरूप से चिकित्सा का मतलब हमारे शरीरों में असंतुलित हुए वात पित्त कफ आदि को संतुलन में लाना ही होता है | त्रिदोषों को  जिस किसी भी प्रकार से संतुलित किया जा सके वह सब चिकित्सा है|शरीरों में  वात पित्त कफ के असंतुलित हो जाने से यदि शरीर रोगी हो सकते हैं,तो इनके संतुलित हो जाने से शरीर स्वस्थ क्यों नहीं हो सकते हैं | 
                                       
                                               वातादि के असंतुलन से पैदा होती हैं महामारियाँ !
 
     आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी इन पंचतत्वों से संसार एवं शरीर दोनों का निर्माण होता है|इन्हीं पंचतत्वों में से आकाश अर्थात खाली जगह और पृथ्वी अर्थात ठोसतत्व स्थिर रहते हैं | इन दो के अतिरिक्त वायु अग्नि और जल जो तीन बचते हैं|  ये तीनों ही संतुलित मात्रा में रहकर प्रकृति और शरीरों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है| इन तीनों की मात्रा असंतुलित होने पर ये प्रकृति और शरीरों को रोगी बनाते हैं | इसलिए इन्हें त्रिदोष  कहा जाता है | आयुर्वेद की भाषा में वायु अग्नि जल को ही वात पित्त और कफ के नाम से जाना जाता है |पित्त का मतलब आग एवं कफ का मतलब जल होता है| वायु  को  ही वात  कहते हैं | 
     वात पित्त और कफ ये तीनों प्रकृति तथा प्राणियों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है |यही    वात पित्त और कफ जब असंतुलित अर्थात  दूषित हो  जाते हैं | उस समय प्रकृति और जीवन दोनों को रोगी करने लगते हैं|ऐसे समय इन्हें त्रिदोष कहा जाता है|
     प्राकृतिक वातावरण में प्रकृति को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |प्रकृति को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ रह सकता है |  उस मात्रा से कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं| जो प्रकृति के लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह असंतुलन कई बार प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला होता है | 
    वात, पित्त,और कफ़ में से किसी एक दोष का प्रभाव भी यदि निर्धारित मात्रा से बढ़ने या कम होने लगे तो जहाँ प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने लगता है| यदि यह प्रभाव बहुत अधिक असंतुलित होने लगे तो प्राकृतिक वातावरण अधिक बिगड़ने लग जाता है|जिससे तरह तरह की प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं|ऐसा प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के प्रतिकूल होने लग जाता है | ऐसे ही यदि कोई दो दोष असंतुलित हो जाएँ तो  वातावरण और अधिक बिगड़ता जाता है |जिससे प्राकृतिक आपदाएँ अधिक घटित होने लगती हैं |यदि तीनों दोष असंतुलित हो जाएँ तो प्राकृतिक वातावरण बहुत अधिक बिगड़ जाता है |जीवन में में ऐसा होता है तो स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाता है | 
     मनुष्य आदि सभी प्राणियों को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |जीवन को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही मनुष्यादि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस प्रकार के प्राकृतिक वातावरण में ही साँस लेकर मनुष्य आदि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस मात्रा से कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं | जो प्राणियों के  लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह असंतुलन रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला होता है | इस असंतुलन से मनुष्यादि जीवों में कुछ उसप्रकार के रोग महारोग आदि पैदा  होने लगते हैं| 
     वात  पित्त आदि के असंतुलित होने पर उसप्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ भी अधिक मात्रा में घटित होने लगती हैं | जो जिस क्रम और स्तर पर हमेंशा नहीं देखी  जाती हैं | प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ निर्मित होने लगती हैं |ऐसा यदि लंबे  समय तक होता रहा तो  रोग और महारोग जन्म लेते देखे जाते हैं |  
     प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष लग जाते हैं | इसलिए ऐसे परिवर्तनों को प्रयत्न पूर्वक पहले से पहचाना जा सकता है |  
     इसमें विशेष बात यह है कि जब जिनके  त्रिदोष असंतुलित हो रहे होते हैं तब उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटनी शुरू हो जाती है | ऐसे लोग  महामारी  के बिना भी रोगी होते देखे जाते हैं | त्रिदोषों का असंतुलन प्राकृतिक रूप से प्रारंभ होते ही प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता घटने लगती है |   
    विशेष बात यह है कि इन त्रिदोषों में से किसी एक दोष से पीड़ित रोगी की चिकित्सा करना आसान होता है | किसी को कफ दोष अर्थात  सर्दी से कोई रोग हुआ हो तो चिकित्सा की जानी इसलिए आसान होती है, क्योंकि उसे ठंडे खान पान रहन सहन आदि से बचाते हुए  गर्मप्रवृत्ति के खान पान रहन सहन औषधियों आदि से रोगमुक्ति मुक्ति मिल जाती है | 
    इसीप्रकार से किन्हीं दो दोषों के प्रभाव से जो रोग पैदा होते हैं|उनमें रोग का स्वभाव पता किया जाना कठिन होता है| इसलिए ऐसे रोगों से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा की जानी भी कठिन होती  है|ऐसे ही तीनों दोषों से पैदा हुए रोग और अधिक भयंकर हो जाते हैं |जिनको समझना एवं उनकी चिकित्सा  किया जाना अत्यंत कठिन या असंभव सा होता है | 
     कुलमिलाकर जिन शरीरों में जब भी त्रिदोष असंतुलित होंने लगेंगे |उस समय उन लोगों के शरीरों में रोग पैदा होंगे ही | इतना अवश्य है कि प्राकृतिक वातावरण में वात पित्तादि त्रिदोषों का संतुलन  भी यदि उसी समय बिगड़ने लग जाए तो ऐसे लोगों को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है| ऐसे लोगों को महामारी आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय रोगी होने का भय अधिक होता है |  
                                                       
 चिकित्सा मतलब क्या ?  
     चिकित्सा का लक्ष्य यदि रोगों से मुक्ति दिलाना होता है तो चिकित्सा की प्रत्येक विधा को  रोग मुक्ति की कसौटी पर कसा जाना चाहिए |ऐसी स्थिति में जिस औषधि या आहार व्यवहार से रोगमुक्ति मिलने लगे वही उस रोग की चिकित्सा होती है | 
   औषधि का मतलब कोई चूर्ण गोली या रस रसायन ही नहीं होता है ,प्रत्युत जिसे खाने पहनने या लेप आदि करने से जिस रोग से  मुक्ति मिले वह तो उस रोग की औषधि है ही इसके साथ ही साथ जिस उपाय अचार व्यवहार खान पान आदि से जिस रोग से मुक्ति मिले वह उसकी औषधि है | उनका सेवन करना या आहार बिहार में उतारना ही चिकित्सा है | 
       प्राचीनकाल में बहुत लोग जीवन भर कोई औषधि नहीं लेते थे ,फिर भी स्वस्थ बने रहते थे | ऐसे लोगों की चिकित्सा की बात तो  दूर  उन्हें कोई रोग ही नहीं होते थे या जो रोग होते थे | वे इतने सामान्य होते थे कि चिकित्सा के बिना ही  उनसे मुक्ति मिल जाया करती थी | ये उनकी आचार चिकित्सा है |       
    अनेकों रोगों  के बढ़ने का  कारण यदि वात पित्त कफ का असंतुलित होना होता है ,इनके संतुलित होने पर उस प्रकार  के रोगों से  मुक्ति मिल  जाती है | इन्हीं वात पित्त आदि के संतुलित हो जाने  पर उस रोग से  मुक्ति मिलेगी |ऐसे रोगों की चिकित्सा के लिए उसके त्रिदोषों को संतुलित करना होता है| बहुत रोगी स्वस्थ आहार बिहार योग व्यायाम आदि अपनाकर चिकित्सा के बिना भी इन्हें संतुलित करके आजीवन स्वस्थ बने रहते हैं |   
     कुछ लोग इन्हें संतुलित करने के लिए पंचकर्म आदि क्रियाओं से शरीर शोधन किया करते हैं | फिर आहार बिहार व्यवहार में सुधार करके अपने  त्रिदोष संतुलित कर लेते हैं | उनके लिए  वही चिकित्सा है  | 
   कुछ रोगी चूर्ण गोली भस्म रस रसायन आदि का उपयोग करके अपने वात पित्तादि को  संतुलित  करके  स्वस्थ  हो जाते हैं | उनके लिए वही चिकित्सा है |   
     कुछ लोग अपने आहार बिहार आदि को संयमित बनाए रहते हैं | उनके न तो वात  पित्त  आदि असंतुलित होते  हैं और न ही वे रोगी होते हैं | कुछ लोग रोगी होने के बाद भी अपने त्रिदोषों को संतुलित करके रोग मुक्त  हो  जाते हैं | ऐसे लोगों को अपने शरीर की भाषा समझने का अभ्यास होता है |  
      कोरोनाकाल में बहुत ऐसे साधन संपन्न रोगी देखे गए जो बहुत बड़े बड़े चिकित्सालयों में जाकर सघन चिकित्सा का लाभ लेने के बाद भी स्वस्थ नहीं हुए | उनके लिए ऐसे चिकित्सालयों औषधियों आदि का क्या महत्त्व !जबकि कुछ साधन बिहीन लोग संक्रमित होने के बाद घरों में ही तुलसी अदरख आदि के काढ़ा चूर्ण आदि का सेवन करते रहे | इसी प्रक्रिया से धीरे धीरे स्वस्थ हो गए | उन्हें जिससे रोग मुक्ति मिले उनके लिए  वही चिकित्सा है |  
    इसप्रकार से त्रिदोषों की साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है, तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्साशास्त्र का उद्देश्य है | 
    वात पित्त कफ को संतुलित करने के उद्देश्य से  यदि ऋतु के अनुसार तथा स्वास्थ्य के अनुकूल भोजन किया जाए तो ये  भोजनचिकित्सा है | स्वास्थ्य के अनुकूल संतुलित आहार बिहार अपनाने से कई बार वात पित्त कफ को संतुलित करने में मदद मिल जाती है | इसलिए इससे भी रोगियों को रोगमुक्त होते देखा जाता है | 
   ऐसे ही स्वच्छवायु में साँस लेने से , स्वच्छ वातावरण में भ्रमण करने से, स्वास्थ्य के अनुकूल रहन सहन अपना लेने से  यदि वात पित्त आदि संतुलित हो जाते हैं ,तो इससे भी रोगी स्वस्थ होने लग जाते हैं |
    स्वस्थ वातावरण में पले  बढ़े फल फूल अनाज दालें शाक सब्जियाँ आदि स्वस्थ होती हैं |जिन्हें खाने वालों के त्रिदोष स्वतः संतुलित हो जाते हैं 
कुछ लोग इसी से स्वस्थ हो जाते हैं|    
    औषधीय चिकित्सा की आवश्यकता वहाँ पड़ती है | जहाँ लोगों के रोगी होने का कारण ऋतु बिपरीत आहार बिहार होता है | लंबे समय तक ऐसा करते  रहने से कुछ लोगों में जिन पोषणीय तत्वों की कमी हो  जाती  है | 
ऐसे लोगों के ऋतु  के अनुकूल आहार बिहार अपना लेने से उस कमी की पूर्ति हो जाती है | जिससे वे  स्वस्थ हो जाते हैं |इससे औषधीय चिकित्सा की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है |  
    कई बार ऐसी कमियों को केवल खान पान आदि से पूरा किया जाना संभव नहीं होता है | इसके लिए कुछ उस प्रकार की  बनस्पतियों से निर्मित औषधियों का सेवन किया या कराया जाता है|जिनमें उसप्रकार के तत्वों की अधिकता होती है | जिससे उन तत्वों की आपूर्ति होकर स्वास्थ्य में सुधार कर लिया जाता है| बहुत लोग इसी प्रक्रिया से कोरोना संक्रमितों के साथ रहकर भी अपने को स्वस्थ रखने में सफल हुए हैं |
       प्राचीनकाल में ऋषि मुनियों को औषधियों  की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी | वे अध्ययनों एवं अनुसंधानों के लिए ही जंगलों के प्राकृतिक वातावरण में रहा करते थे | ऐसे आचारों व्यवहारों यौगिकक्रियाओं से अपने  वात पित्त कफ को संतुलित करने ऋषि मुनि दीर्घायुष्य का लाभ लेते देखे जाते रहे  हैं,जबकि  उन्हें भी उसी प्राकृतिक वातावरण का सेवन करना पड़ता है | जिसके बिगड़ने पर बहुत लोग अस्वस्थ हो जाते हैं |जिनके त्रिदोष संतुलि होते हैं वे उन्हीं परिस्थितियों में रहते हुए भी स्वस्थ बने  रहते हैं | 
     प्राचीनकाल में हर व्यक्ति का सोना जागना आहार बिहार आदि स्वास्थ्य के अनुसार व्यवस्थित किया जाता था | जिससे त्रिदोष स्वतः ही संतुलित बने रहते थे | इससे अधिकाँश लोगों को चिकित्सा की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी |उस समय  चिकित्सालयों की संख्या बढ़ाने की अपेक्षा रोगियों की संख्या घटाने पर जोर दिया जाता था | त्रिदोषों को संतुलित करने के लिए अपने आहार बिहार आदि में उसप्रकार के परिवर्तन करने होते हैं | इसके लिए कोई भी प्रक्रिया अपनाई जा सकती है |   

                                           महामारी संक्रमण बढ़ने घटने के कारण की खोज  

      महामारी से संपूर्ण विश्व लगभग एक समान रूप  से जूझ रहा था | संक्रमण का प्रभाव जब बढ़ता था तब विश्व के प्रायः सभी देशों में समान रूप से बढ़ता था | यही प्रभाव जब कम होना प्रारंभ होता था तब भी सभी देशों  में थोड़े बहुत अंतर  के साथ कम होता था | 
     महामारी  संबंधी संक्रमण बढ़ने  के लिए प्रायः कोविड संबंधी नियमों के पालन न करने को जिम्मेदार माना बताया जाता था , किंतु व्यवहार में प्रायः ऐसा नहीं देखा जाता था | भारत के बिहार बंगाल  चुनावी रैलियाँ में, दिल्ली में किसान आंदोलन में, दिल्ली सूरत मुंबई से  श्रमिकों के पलायन हुआ में,हरिद्वार कुंभ मेले में कोरोना काल  में  ही भारी भीड़ें उमड़ती रहीं  | जिनमें कोविड  नियमों की बार बार अनदेखी की जाती रही | महानगरों में गरीबों के बच्चे दिन दिन भर भोजन के लिए लाइनों में खड़े होते रहे ऐसी सभी जगहों पर कोविड  नियमों का पालन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सका ! बड़ी बड़ी फैक्ट्रियों जहाँ कर्मचारियों का सामूहिक रहन सहन आदि था | उनमें कुछ लोग यदि संक्रमित  हुए भी तो उन्हीं  के साथ रहने वाले बाकी सभी सुरक्षित बचे रहे | ऐसे ही घनी बस्तियों में छोटे घरों में अनाथाश्रमों वृद्धाश्रमों वात्सल्य भवनों में गुरुकुलों आदि के सामूहिक रहन सहन में कोविड  नियमों का पालन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सका !ऐसा किया जाना संभव भी न था | ऐसा भी नहीं कहा जा  सकता है कि जब कोरोना की  लहर  शांत होने  लगती थी | उस समय  कोविड  नियमों का  पालन बहुत कठोरता  से  किया जा  रहा होता था | ऐसी स्थिति में  महामारी संक्रमण  के बढ़ने घटने का संबंध कोविड  नियमों के पालन करने न करने से सीधेतौर पर जुड़ता नहीं  दिख रहा है | 
    ऐसे ही कोरोना संबंधी संक्रमण बढ़ने के लिए  प्रदूषित रहन सहन  को  जिम्मेदार बताया जाता रहा किंतु  बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है | उसप्रकार के स्थानों पर रहना जिसकी मजबूरी थी !फिर भी वहाँ संक्रमण  बढ़ते  नहीं देखा  गया था |इसका मतलब कोरोना बढ़ने  का कारण  प्रदूषित रहन सहन नहीं था | 
     इसीप्रकार से  वायुप्रदूषण बढ़ने  को भी कोरोना बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताया जाता रहा है, किंतु 2020 के अक्टूबर नवंबर महीनों में वायुप्रदूषण  बहुत अधिक बढ़ा हुआ था किंतु कोरोना संक्रमण दिनोंदिन कम होता जा था | ऐसे ही मार्च अप्रैल 2021 में वायुप्रदूषण इतना कम था किअमृतशर और बिहार के कुछ जिलों से हिमालय दिखाई  पड़ने  लगा था | वायुप्रदूषण शांत  होने बाद भी इस समय  महामारी की सबसे भयंकर दूसरी लहर आयी थी |वायु प्रदूषण बढ़ने पर कोरोना संक्रमण बढ़ा नहीं और घटने पर घटा नहीं | इसका मतलब  कोरोना बढ़ने घटने का कारण वायु प्रदूषण नहीं था |
   तापमान के कम होने को कोरोना संक्रमण बढ़ने का कारण बताया गया था,किंतु भारत में केवल तीसरी लहर ही तापमान कम होने पर अर्थात जनवरी में  आयी थी | उसके अतिरिक्त बाकी तीन लहरें तापमान बढ़ते समय ही आई  थीं | इसका मतलब कोरोना संक्रमण बढ़ने  घटने का  संबंध तापमान के  घटने बढ़ने से नहीं  है |  
     इतने उन्नत विज्ञान के आधार  महामारी के बिषय में लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि सही न निकलने का कारण क्या है |चूक आखिर कहाँ हो रही है |ये  सही सही पता  लगाया  जाना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि उसी के  आधार महामारी जैसे संकटों से मनुष्यों की सुरक्षा के लिए अग्रिम प्रभावी तैयारियाँ करके रखी जानी चाहिए |  
    ऐसी परिस्थिति में इस बिषय में बिचार किया जाना आवश्यक है कि महामारी के पैदा और समाप्त होने  का या लहरों के आने या जाने का कारण यदि वायुप्रदूषण बढ़ना घटना नहीं है ,तापमान बढ़ना घटना नहीं है,प्रदूषित रहन सहन  नहीं है,कोविड नियमों का पालन करना या न करना नहीं है तो ऐसा  कारण  आखिर है क्या ? जिसके प्रभाव से महामारी और उसकी  लहरें  पैदा और समाप्त होती हैं | 
 
 
 

 
 
 
 
 
       विशेष बात ये है कि  बहुसंख्य लोगों ने ऐसी भिन्न भिन्न प्रकार की अलग अलग पद्धतियाँ अपनाईं |उसके बाद वे धीरे धीरे स्वस्थ होते चले गए | जिसे जिस प्रक्रिया से रोगमुक्ति मिली उसने उसे  ही चिकित्सा मान लिया,जबकि उन सब में एक दूसरे से बहुत भिन्नता थी | 
     इसीप्रकार से कोरोना संक्रमण घटने या महामारी के  समाप्त होने की  बात की जाए तो जिस प्लाज्मा थैरेपी  को  पहले महामारी संक्रमण से मुक्ति दिलाने में सक्षम माना गया |बाद में उसके उसप्रकार के प्रभाव को नकार दिया गया और उसे  उस प्रक्रिया से  अलग कर लिया  गया | ऐसे ही और भी जिन टीकों औषधियों आदि को महामारी संक्रमण से मुक्ति दिलाने में समर्थ माना गया | बाद में उनके उस प्रकार के प्रभाव को नकार दिया गया | 
      वैक्सीन 
    
 
 सुदूर गाँवों या जंगलों आदि में जहाँ चिकित्सकीय विकास नहीं पहुँच सका है | वहाँ भी लोग रोगी होते हैं और बिना औषधीय चिकित्सा के स्वस्थ भी हो जाते हैं | ऐसे लोग स्वस्थ वातावरण में रहकर स्वच्छ हवा में सॉंस लेकर योग व्यायाम आदि करके अपने त्रिदोषों को संतुलित बनाए रखते हैं |कुछ लोग दैनिक जीवन में परिश्रम करके अपने वात पित्त आदि  दोषों को संतुलित बनाए  रखते हैं उनके लिए वही चिकित्सा है |   
 


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