8-7-2025Vattttttadi

                https://sahjchintan.blogspot.com/2021/10/4.html                        
                                                 
                                                  प्रकृतिजीवन और प्रतिरोधक क्षमता !
  
     मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |जिस प्रकार से  किसी कारखाने में बिजली बार बार आने जाने लगे तो मशीनें कभी बहुत तेज भागेंगी और कभी बंद होने लगेंगी | ऐसे समय उनमें आग न  लग जाए या वे मशीनें बिगड़ न जाएँ |इसके लिए या तो मशीनें  बंद कर दी जाएँ या फिर जनरेटर आदि वैकल्पिक ऊर्जा से उन्हें चलाते रहा जाए | 
     इसीप्रकार से वात पित्त आदि का प्रभाव जब अचानक बढ़ने घटने लगता है तब उस कारखाने की मशीनों की तरह  प्राकृतिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगती है | इस असंतुलन से  भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ घटित होने लगती हैं |इसी प्रकार के अवरोध से रोग महारोग (महामारी) जैसी घटनाएँ घटित होने लगती हैं |      ऐसे समय में मशीनों को सुरक्षित रखते हुए चलाते रहने के लिए जिस प्रकार से जनरेटर आदि वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग किया जाता है | उससे मशीनें भी नहीं बिगड़ती हैं और काम भी चलता रहता है | यह वैकल्पिक ऊर्जा ही  प्रतिरोधक क्षमता  है जो प्राकृतिक असंतुलन में भी प्रकृति और जीवन को सुरक्षित बचाए रखती है और सभी कार्य भी संचालित होते रहते हैं |  
      कुल मिलाकर प्रतिरोधक क्षमता से हमारा आशय ऐसी परोक्षऊर्जा से है जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले परोक्षस्रोत  समयप्रभाव से कुछ समय के लिए अचानक अवरुद्ध होने लग  जाएँ, अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने लगे | ऐसे समय यह परोक्षऊर्जा (प्रतिरोधक) क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख सके |  
     प्रतिरोधक क्षमता जब मजबूत होती है तब प्रकृति और जीवन में कई बार ऐसी बड़ी बड़ी प्राकृतिक या मनुष्यकृत दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं | उन दुर्घटनाओं में बुरी तरह प्रभावित होकर भी कुछ लोग बाल बाल बच जाते हैं | जिनमें किसी को बचने की आशा ही नहीं होती है | ये उनकी अपनी प्रतिरोधक क्षमता का ही प्रभाव होता है | जहाँ मनुष्यकृत किसी भी शक्ति का कोई बश नहीं चलता है | वहाँ से भी  यह परोक्ष ऊर्जा  व्यक्ति को सुरक्षित बचाकर लाती है | शरीरों में  यह मनुष्यों के अपने अपने सदाचरणों से मिर्मित होती है | किसी देश प्रदेश आदि में उसके शासक के सदाचरणों से निर्मित  होती है | इसलिए प्रत्येक शासक एवं आमजन  को  प्रतिपल अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते रहना चाहिए |  
      शासकों की इसी प्रतिरोधक क्षमता के प्रभाव से भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ बहुत वेग से आकर भी अपनी सीमा लाँघती नहीं हैं  | भूकंप की तीव्रता यदि 15 या 20 तक भी पहुँच जाए तो मनुष्य उसे रोक भले न सकते हों किंतु मनुष्यों की सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक घटनाओं को नियंत्रित करके रखती है | यदि ऐसा न होता तो भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ कभी भी कितना भी भयानक हिंसक स्वरूप धारण कर सकती हैं |  ऐसा ही प्राणियों के साथ भी हो सकता है | बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ घटित होती हैं | उनसे बहुत लोग प्रभावित और पीड़ित भी होते हैं ,किंतु उनसे संपूर्ण सृष्टि कभी समाप्त नहीं होती है | ये प्रतिरोधक क्षमता का ही अनुशासन है| प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता प्रकृति और जीवन दोनों को ही होती है | इसलिए इसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न निरंतर करते रहना चाहिए | 
     प्राकृतिकरूप से भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ तो अपने अपने  निर्द्धारित समय पर घटित होती ही रहती हैं | प्रतिरोधक क्षमता जब जितनी कमजोर रहती है तब उनका वेग उतना ही अधिक बढ़ जाता है | वे उतनी ही अधिक हिंसक हो जाती हैं |यदि सामूहिक रूप से प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है तब भी पूर्व निर्द्धारित घटनाओं को तो घटित होना ही होता है ,किंतु प्रतिरोधक क्षमता के प्रभाव से उनका वेग बहुत कम हो जाता है | जिससे प्रतीक रूप में वे घटित होकर निकल जाती हैं | सभी प्राणी सुरक्षित बने रहते हैं | 
      प्रकृति और जीवन को सुरक्षित चलाने में प्रमुख प्रतिरोधक क्षमता ही है | प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने पर उस प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के न घटित होने पर भी लोग रोगी होते देखे जाते हैं | प्रतिरोधक क्षमता जिनकी अपनी समाप्त हो जाती है उनका जीवन पूरा हो जाता है | 
       प्रतिरोधक क्षमता के स्वभाव शक्ति एवं बढ़ने घटने का कारण समझे बिना  प्राकृतिक घटनाओं एवं प्राकृतिक रोगों के बिषय में न तो पूर्वानुमान लगाया जा सकता है  और न ही इन्हें समझा जा सकता है | किसी भी घटना या रोग को समझे बिना न तो उससे सुरक्षा के उपाय  सोचे जा सकते हैं  और न ही ऐसे प्राकृतिक रोगों से सुरक्षा के लिए औषधि बनाई जा सकती है | जिस रोग की प्रकृति ही नहीं पता होगी उसके लिए चिकित्सा की व्यवस्था कैसे की जा सकती है |  
                      प्रतिरोधक क्षमता  कमजोर होते ही असंतुलित होने लगते हैं वातादि दोष 
    त्रिदोषों का संतुलित  होना आवश्यक होता  है| जब तक ऐसा होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ  रहने तक प्राकृतिक उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है,अर्थात ऐसा अवसर जब तक  रहता  है तबतक भूकंप आँधी तूफान अति वर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है | ऐसी घटनाएँ यदि घटित होती भी हैं तो उनका वेग बहुत कम होता है | इसलिए उनसे जनधन हानि बहुत कम या फिर बिल्कुल नहीं होती है | 
     प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही यह समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक वातावरण में प्रतिरोधक क्षमता दिनोंदिन कमजोर हो रही है | ऐसे समय भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी हिंसक घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में बार बार घटित होते देखी जाती हैं |       
     ऐसे ही प्राणियों में प्रतिरोधक क्षमता घटने के कारण स्वास्थ्य बिपरीत  बड़ी बड़ी घटनाएँ घटित होने लगती हैं | छोटे छाटे कारणों से बड़े बड़े रोग होने लगते हैं | छोटे छोटे रोग बहुत जल्दी बड़े बड़े स्वरूप धारण करते देखे जाते हैं | ऐसे रोगियों पर चिकित्सा का प्रभाव बहुत कम या कई बार तो बिल्कुल नहीं पड़ता है | सघन चिकित्सा का लाभ लेते हुए भी छोटे छोटे रोगों को बड़े बड़े स्वरूप धारण करते देखा जाता है | ऐसे लक्षण सामूहिक या व्यक्तिगत प्राकृतिक रोगों या महारोगों (महामारी) के आने के कुछ वर्ष पहले से घटित होते देखे जाते हैं |         
     प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही  शरीर इसीक्रम  में धीरे धीरे रोगी होते चले जाते हैं | बहुत लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ  घटित होते देखी जाती हैं| प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |
    कुल मिलाकर  मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |प्रतिरोधक क्षमता से हमारा आशय ऐसी ऊर्जा से है | जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले स्रोत  कुछ समय के लिए अचानक अवरुद्ध हो जाएँ | !अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने लगे | ऐसे समय यह प्रतिरोधक क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख सके | इसके लिए त्रिदोषों का संतुलित  होना आवश्यक होता  है| जब तक ऐसा होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ  रहने पर प्राकृतिक उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है|ऐसा अवसर जब तक  रहता  है तबतक भूकंप आँधी तूफान अतिवर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है | 
   प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया प्रारंभ होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में घटित होते देखी जाती हैं |प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता घटने लगती है |जो हमेंशा नहीं देखी  जाती हैं |यह प्रक्रिया महामारी आने के कुछ वर्ष पहले ही  प्रारंभ हो जाती है |प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही   इसीक्रम  में धीरे धीरे शरीर रोगी होते चले जाते हैं | कुछ लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ  घटित होते देखी जाती हैं| 
प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |    
      कुलमिलाकर त्रिदोषों की साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्सा शास्त्र का उद्देश्य है |     
     सामान्यरूप से चिकित्सा का मतलब हमारे शरीरों में असंतुलित हुए वात पित्त कफ आदि को संतुलन में लाना ही होता है | त्रिदोषों को  जिस किसी भी प्रकार से संतुलित किया जा सके वह सब चिकित्सा है|शरीरों में  वात पित्त कफ के असंतुलित हो जाने से यदि शरीर रोगी हो सकते हैं,तो इनके संतुलित हो जाने से शरीर स्वस्थ क्यों नहीं हो सकते हैं |                                       
                                               वातादि के असंतुलन से पैदा होती हैं महामारियाँ !
 
     आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी इन पंचतत्वों से संसार एवं शरीर दोनों का निर्माण होता है|इन्हीं पंचतत्वों में से आकाश अर्थात खाली जगह और पृथ्वी अर्थात ठोसतत्व स्थिर रहते हैं | इन दो के अतिरिक्त वायु अग्नि और जल जो तीन बचते हैं|  ये तीनों ही संतुलित मात्रा में रहकर प्रकृति और शरीरों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है| इन तीनों की मात्रा असंतुलित होने पर ये प्रकृति और शरीरों को रोगी बनाते हैं | इसलिए इन्हें त्रिदोष  कहा जाता है | आयुर्वेद की भाषा में वायु अग्नि जल को ही वात पित्त और कफ के नाम से जाना जाता है |पित्त का मतलब आग एवं कफ का मतलब जल होता है| वायु  को  ही वात  कहते हैं | 
     वात पित्त और कफ ये तीनों प्रकृति तथा प्राणियों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है |यही    वात पित्त और कफ जब असंतुलित अर्थात  दूषित हो  जाते हैं | उस समय प्रकृति और जीवन दोनों को रोगी करने लगते हैं|ऐसे समय इन्हें त्रिदोष कहा जाता है|
     प्राकृतिक वातावरण में प्रकृति को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |प्रकृति को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ रह सकता है |  उस मात्रा से कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं| जो प्रकृति के लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह असंतुलन कई बार प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला होता है | 
    वात, पित्त,और कफ़ में से किसी एक दोष का प्रभाव भी यदि निर्धारित मात्रा से बढ़ने या कम होने लगे तो जहाँ प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने लगता है| यदि यह प्रभाव बहुत अधिक असंतुलित होने लगे तो प्राकृतिक वातावरण अधिक बिगड़ने लग जाता है|जिससे तरह तरह की प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं|ऐसा प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के प्रतिकूल होने लग जाता है | ऐसे ही यदि कोई दो दोष असंतुलित हो जाएँ तो  वातावरण और अधिक बिगड़ता जाता है |जिससे प्राकृतिक आपदाएँ अधिक घटित होने लगती हैं |यदि तीनों दोष असंतुलित हो जाएँ तो प्राकृतिक वातावरण बहुत अधिक बिगड़ जाता है |जीवन में में ऐसा होता है तो स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाता है | 
     मनुष्य आदि सभी प्राणियों को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |जीवन को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही मनुष्यादि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस प्रकार के प्राकृतिक वातावरण में ही साँस लेकर मनुष्य आदि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस मात्रा से कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं | जो प्राणियों के  लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह असंतुलन रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला होता है | इस असंतुलन से मनुष्यादि जीवों में कुछ उसप्रकार के रोग महारोग आदि पैदा  होने लगते हैं| 
     वात  पित्त आदि के असंतुलित होने पर उसप्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ भी अधिक मात्रा में घटित होने लगती हैं | जो जिस क्रम और स्तर पर हमेंशा नहीं देखी  जाती हैं | प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ निर्मित होने लगती हैं |ऐसा यदि लंबे  समय तक होता रहा तो  रोग और महारोग जन्म लेते देखे जाते हैं |  
     प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष लग जाते हैं | इसलिए ऐसे परिवर्तनों को प्रयत्न पूर्वक पहले से पहचाना जा सकता है |  
     इसमें विशेष बात यह है कि जब जिनके  त्रिदोष असंतुलित हो रहे होते हैं तब उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटनी शुरू हो जाती है | ऐसे लोग  महामारी  के बिना भी रोगी होते देखे जाते हैं | त्रिदोषों का असंतुलन प्राकृतिक रूप से प्रारंभ होते ही प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता घटने लगती है |   
    विशेष बात यह है कि इन त्रिदोषों में से किसी एक दोष से पीड़ित रोगी की चिकित्सा करना आसान होता है | किसी को कफ दोष अर्थात  सर्दी से कोई रोग हुआ हो तो चिकित्सा की जानी इसलिए आसान होती है, क्योंकि उसे ठंडे खान पान रहन सहन आदि से बचाते हुए  गर्मप्रवृत्ति के खान पान रहन सहन औषधियों आदि से रोगमुक्ति मुक्ति मिल जाती है | 
    इसीप्रकार से किन्हीं दो दोषों के प्रभाव से जो रोग पैदा होते हैं|उनमें रोग का स्वभाव पता किया जाना कठिन होता है| इसलिए ऐसे रोगों से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा की जानी भी कठिन होती  है|ऐसे ही तीनों दोषों से पैदा हुए रोग और अधिक भयंकर हो जाते हैं |जिनको समझना एवं उनकी चिकित्सा  किया जाना अत्यंत कठिन या असंभव सा होता है | 
     कुलमिलाकर जिन शरीरों में जब भी त्रिदोष असंतुलित होंने लगेंगे |उस समय उन लोगों के शरीरों में रोग पैदा होंगे ही | इतना अवश्य है कि प्राकृतिक वातावरण में वात पित्तादि त्रिदोषों का संतुलन  भी यदि उसी समय बिगड़ने लग जाए तो ऐसे लोगों को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है| ऐसे लोगों को महामारी आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय रोगी होने का भय अधिक होता है |  
                                                       
 चिकित्सा मतलब क्या ?  
     चिकित्सा का लक्ष्य यदि रोगों से मुक्ति दिलाना होता है तो चिकित्सा की प्रत्येक विधा को  रोग मुक्ति की कसौटी पर कसा जाना चाहिए |ऐसी स्थिति में जिस औषधि या आहार व्यवहार से रोगमुक्ति मिलने लगे वही उस रोग की चिकित्सा होती है | 
   औषधि का मतलब कोई चूर्ण गोली या रस रसायन ही नहीं होता है ,प्रत्युत जिसे खाने पहनने या लेप आदि करने से जिस रोग से  मुक्ति मिले वह तो उस रोग की औषधि है ही इसके साथ ही साथ जिस उपाय अचार व्यवहार खान पान आदि से जिस रोग से मुक्ति मिले वह उसकी औषधि है | उनका सेवन करना या आहार बिहार में उतारना ही चिकित्सा है | 
       प्राचीनकाल में बहुत लोग जीवन भर कोई औषधि नहीं लेते थे ,फिर भी स्वस्थ बने रहते थे | ऐसे लोगों की चिकित्सा की बात तो  दूर  उन्हें कोई रोग ही नहीं होते थे या जो रोग होते थे | वे इतने सामान्य होते थे कि चिकित्सा के बिना ही  उनसे मुक्ति मिल जाया करती थी | ये उनकी आचार चिकित्सा है |       
    अनेकों रोगों  के बढ़ने का  कारण यदि वात पित्त कफ का असंतुलित होना होता है ,इनके संतुलित होने पर उस प्रकार  के रोगों से  मुक्ति मिल  जाती है | इन्हीं वात पित्त आदि के संतुलित हो जाने  पर उस रोग से  मुक्ति मिलेगी |ऐसे रोगों की चिकित्सा के लिए उसके त्रिदोषों को संतुलित करना होता है| बहुत रोगी स्वस्थ आहार बिहार योग व्यायाम आदि अपनाकर चिकित्सा के बिना भी इन्हें संतुलित करके आजीवन स्वस्थ बने रहते हैं |   
     कुछ लोग इन्हें संतुलित करने के लिए पंचकर्म आदि क्रियाओं से शरीर शोधन किया करते हैं | फिर आहार बिहार व्यवहार में सुधार करके अपने  त्रिदोष संतुलित कर लेते हैं | उनके लिए  वही चिकित्सा है  | 
   कुछ रोगी चूर्ण गोली भस्म रस रसायन आदि का उपयोग करके अपने वात पित्तादि को  संतुलित  करके  स्वस्थ  हो जाते हैं | उनके लिए वही चिकित्सा है |   
     कुछ लोग अपने आहार बिहार आदि को संयमित बनाए रहते हैं | उनके न तो वात  पित्त  आदि असंतुलित होते  हैं और न ही वे रोगी होते हैं | कुछ लोग रोगी होने के बाद भी अपने त्रिदोषों को संतुलित करके रोग मुक्त  हो  जाते हैं | ऐसे लोगों को अपने शरीर की भाषा समझने का अभ्यास होता है |  
      कोरोनाकाल में बहुत ऐसे साधन संपन्न रोगी देखे गए जो बहुत बड़े बड़े चिकित्सालयों में जाकर सघन चिकित्सा का लाभ लेने के बाद भी स्वस्थ नहीं हुए | उनके लिए ऐसे चिकित्सालयों औषधियों आदि का क्या महत्त्व !जबकि कुछ साधन बिहीन लोग संक्रमित होने के बाद घरों में ही तुलसी अदरख आदि के काढ़ा चूर्ण आदि का सेवन करते रहे | इसी प्रक्रिया से धीरे धीरे स्वस्थ हो गए | उन्हें जिससे रोग मुक्ति मिले उनके लिए  वही चिकित्सा है |  
    इसप्रकार से त्रिदोषों की साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है, तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्साशास्त्र का उद्देश्य है | 
    वात पित्त कफ को संतुलित करने के उद्देश्य से  यदि ऋतु के अनुसार तथा स्वास्थ्य के अनुकूल भोजन किया जाए तो ये  भोजनचिकित्सा है | स्वास्थ्य के अनुकूल संतुलित आहार बिहार अपनाने से कई बार वात पित्त कफ को संतुलित करने में मदद मिल जाती है | इसलिए इससे भी रोगियों को रोगमुक्त होते देखा जाता है | 
   ऐसे ही स्वच्छवायु में साँस लेने से , स्वच्छ वातावरण में भ्रमण करने से, स्वास्थ्य के अनुकूल रहन सहन अपना लेने से  यदि वात पित्त आदि संतुलित हो जाते हैं ,तो इससे भी रोगी स्वस्थ होने लग जाते हैं |
    स्वस्थ वातावरण में पले  बढ़े फल फूल अनाज दालें शाक सब्जियाँ आदि स्वस्थ होती हैं |जिन्हें खाने वालों के त्रिदोष स्वतः संतुलित हो जाते हैं 
कुछ लोग इसी से स्वस्थ हो जाते हैं|    
    औषधीय चिकित्सा की आवश्यकता वहाँ पड़ती है | जहाँ लोगों के रोगी होने का कारण ऋतु बिपरीत आहार बिहार होता है | लंबे समय तक ऐसा करते  रहने से कुछ लोगों में जिन पोषणीय तत्वों की कमी हो  जाती  है | 
ऐसे लोगों के ऋतु  के अनुकूल आहार बिहार अपना लेने से उस कमी की पूर्ति हो जाती है | जिससे वे  स्वस्थ हो जाते हैं |इससे औषधीय चिकित्सा की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है |  
    कई बार ऐसी कमियों को केवल खान पान आदि से पूरा किया जाना संभव नहीं होता है | इसके लिए कुछ उस प्रकार की  बनस्पतियों से निर्मित औषधियों का सेवन किया या कराया जाता है|जिनमें उसप्रकार के तत्वों की अधिकता होती है | जिससे उन तत्वों की आपूर्ति होकर स्वास्थ्य में सुधार कर लिया जाता है| बहुत लोग इसी प्रक्रिया से कोरोना संक्रमितों के साथ रहकर भी अपने को स्वस्थ रखने में सफल हुए हैं |
       प्राचीनकाल में ऋषि मुनियों को औषधियों  की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी | वे अध्ययनों एवं अनुसंधानों के लिए ही जंगलों के प्राकृतिक वातावरण में रहा करते थे | ऐसे आचारों व्यवहारों यौगिकक्रियाओं से अपने  वात पित्त कफ को संतुलित करने ऋषि मुनि दीर्घायुष्य का लाभ लेते देखे जाते रहे  हैं,जबकि  उन्हें भी उसी प्राकृतिक वातावरण का सेवन करना पड़ता है | जिसके बिगड़ने पर बहुत लोग अस्वस्थ हो जाते हैं |जिनके त्रिदोष संतुलि होते हैं वे उन्हीं परिस्थितियों में रहते हुए भी स्वस्थ बने  रहते हैं | 
     प्राचीनकाल में हर व्यक्ति का सोना जागना आहार बिहार आदि स्वास्थ्य के अनुसार व्यवस्थित किया जाता था | जिससे त्रिदोष स्वतः ही संतुलित बने रहते थे | इससे अधिकाँश लोगों को चिकित्सा की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी |उस समय  चिकित्सालयों की संख्या बढ़ाने की अपेक्षा रोगियों की संख्या घटाने पर जोर दिया जाता था | त्रिदोषों को संतुलित करने के लिए अपने आहार बिहार आदि में उसप्रकार के परिवर्तन करने होते हैं | इसके लिए कोई भी प्रक्रिया अपनाई जा सकती है |   

                                        महामारी संक्रमण बढ़ने घटने के कारण की खोज  

      महामारी से संपूर्ण विश्व लगभग एक समान रूप  से जूझ रहा था | संक्रमण का प्रभाव जब बढ़ता था तब विश्व के प्रायः सभी देशों में समान रूप से बढ़ता था | यही प्रभाव जब कम होना प्रारंभ होता था तब भी सभी देशों  में थोड़े बहुत अंतर  के साथ कम होता था | 
     महामारी  संबंधी संक्रमण बढ़ने  के लिए प्रायः कोविड संबंधी नियमों के पालन न करने को जिम्मेदार माना बताया जाता था , किंतु व्यवहार में प्रायः ऐसा नहीं देखा जाता था | भारत के बिहार बंगाल  चुनावी रैलियाँ में, दिल्ली में किसान आंदोलन में, दिल्ली सूरत मुंबई से  श्रमिकों के पलायन हुआ में,हरिद्वार कुंभ मेले में कोरोना काल  में  ही भारी भीड़ें उमड़ती रहीं  | जिनमें कोविड  नियमों की बार बार अनदेखी की जाती रही | महानगरों में गरीबों के बच्चे दिन दिन भर भोजन के लिए लाइनों में खड़े होते रहे ऐसी सभी जगहों पर कोविड  नियमों का पालन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सका ! बड़ी बड़ी फैक्ट्रियों जहाँ कर्मचारियों का सामूहिक रहन सहन आदि था | उनमें कुछ लोग यदि संक्रमित  हुए भी तो उन्हीं  के साथ रहने वाले बाकी सभी सुरक्षित बचे रहे | ऐसे ही घनी बस्तियों में छोटे घरों में अनाथाश्रमों वृद्धाश्रमों वात्सल्य भवनों में गुरुकुलों आदि के सामूहिक रहन सहन में कोविड  नियमों का पालन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सका !ऐसा किया जाना संभव भी न था | ऐसा भी नहीं कहा जा  सकता है कि जब कोरोना की  लहर  शांत होने  लगती थी | उस समय  कोविड  नियमों का  पालन बहुत कठोरता  से  किया जा  रहा होता था | ऐसी स्थिति में  महामारी संक्रमण  के बढ़ने घटने का संबंध कोविड  नियमों के पालन करने न करने से सीधेतौर पर जुड़ता नहीं  दिख रहा है | 
    ऐसे ही कोरोना संबंधी संक्रमण बढ़ने के लिए  प्रदूषित रहन सहन  को  जिम्मेदार बताया जाता रहा किंतु  बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है | उसप्रकार के स्थानों पर रहना जिसकी मजबूरी थी !फिर भी वहाँ संक्रमण  बढ़ते  नहीं देखा  गया था |इसका मतलब कोरोना बढ़ने  का कारण  प्रदूषित रहन सहन नहीं था | 
     इसीप्रकार से  वायुप्रदूषण बढ़ने  को भी कोरोना बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताया जाता रहा है, किंतु 2020 के अक्टूबर नवंबर महीनों में वायुप्रदूषण  बहुत अधिक बढ़ा हुआ था किंतु कोरोना संक्रमण दिनोंदिन कम होता जा था | ऐसे ही मार्च अप्रैल 2021 में वायुप्रदूषण इतना कम था किअमृतशर और बिहार के कुछ जिलों से हिमालय दिखाई  पड़ने  लगा था | वायुप्रदूषण शांत  होने बाद भी इस समय  महामारी की सबसे भयंकर दूसरी लहर आयी थी |वायु प्रदूषण बढ़ने पर कोरोना संक्रमण बढ़ा नहीं और घटने पर घटा नहीं | इसका मतलब  कोरोना बढ़ने घटने का कारण वायु प्रदूषण नहीं था |
   तापमान के कम होने को कोरोना संक्रमण बढ़ने का कारण बताया गया था,किंतु भारत में केवल तीसरी लहर ही तापमान कम होने पर अर्थात जनवरी में  आयी थी | उसके अतिरिक्त बाकी तीन लहरें तापमान बढ़ते समय ही आई  थीं | इसका मतलब कोरोना संक्रमण बढ़ने  घटने का  संबंध तापमान के  घटने बढ़ने से नहीं  है |  
     इतने उन्नत विज्ञान के आधार  महामारी के बिषय में लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि सही न निकलने का कारण क्या है |चूक आखिर कहाँ हो रही है |ये  सही सही पता  लगाया  जाना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि उसी के  आधार महामारी जैसे संकटों से मनुष्यों की सुरक्षा के लिए अग्रिम प्रभावी तैयारियाँ करके रखी जानी चाहिए |  
    ऐसी परिस्थिति में इस बिषय में बिचार किया जाना आवश्यक है कि महामारी के पैदा और समाप्त होने  का या लहरों के आने या जाने का कारण यदि वायुप्रदूषण बढ़ना घटना नहीं है ,तापमान बढ़ना घटना नहीं है,प्रदूषित रहन सहन  नहीं है,कोविड नियमों का पालन करना या न करना नहीं है तो ऐसा  कारण  आखिर है क्या ? जिसके प्रभाव से महामारी और उसकी  लहरें  पैदा और समाप्त होती हैं | महामारी क्यों और क्यों चली जाती है | इसमें मनुष्यकृत प्रयत्नों की कितनी भूमिका है | महामारी  से  समाज की सुरक्षा के लिए  ये  सबकुछ  समझना बहुत आवश्यक है | इसी जाने बिना सुरक्षा के लिए कोई उपाय किस आधार पर किया  जा  सकता है | 
 
                                                         महामारी की चिकित्सा या भ्रम 
 
     कोरोनामहामारी के समय एक और विशेषबात देखी गई कि महामारी से मुक्ति दिलाने वाली कोई निश्चित औषधि तो थी नहीं |रोगियों के लक्षणों के आधार पर उन्हें रोगमुक्त  करने के लिए प्रयास किए जा रहे  थे |उनमें एकरूपता नहीं थी | ऐसी स्थिति में बहुसंख्य लोग अपने या अपनों को स्वस्थ करने ऐसी भिन्न भिन्न प्रकार की अलग अलग पद्धतियों औषधियों का उपयोग करते जा रहे थे उसके बाद स्वस्थ होते जा  रहे थे | उस स्वस्थ होने को अपने द्वारा उपयोग की जा  रही औषधियों चिकित्सापद्धतियों को श्रेय  देते जा रहे थे | जो जब रोग मुक्त होने लगा उससमय जिस प्रक्रिया को अपना रहा था उसे ही उसका श्रेय देता जा रहा था |इसमें सभी पद्धतियों से चिकित्सालयीय  सहयोग तो लिया ही जा  रहा था !उसके अतिरिक्त घरेलू नुस्खे जादू टोने झाड़ फूँक पूजा पाठ आदि सभी कुछ अपनाया जा रहा था | लोग धीरे धीरे स्वस्थ होते चले जा  रहे थे | प्रायः सभी लोग  अपने अपने द्वारा किए जा रहे प्रयोगों को कोरोना महामारी से मुक्ति दिलाने की मजबूत प्रक्रिया  मान रहे थे |  
      इसप्रकार से  उस  लहर के बाद  जब कोई दूसरी लहर आती तो पहले किए गए प्रयोगों को दोहराया जाता रहा उनसे कोई लाभ होते नहीं देखा गया | उसके बाद लोगों को यह सच्चाई समझ में आई कि जिसे हम कोरोना महामारी की प्रभावी औषधि समझ  रहे थे | उसका महामारी से कोई संबंध ही नहीं था | ऐसे बिषयों के विशेषज्ञ लोगों ने इसी सच्चाई को कुछ ऐसे स्वीकार किया कि अब महामारी का स्वरूप परिवर्तन  गया इसलिए पहले वाली चिकित्सा अब रोग मुक्ति दिलाने में सक्षम नहीं रही है |ऐसी ही कल्पना करनी है तो किसी एक पद्धति के बिषय में ही क्यों ?ये बात तो उन सभी पद्धतियों औषधियों प्रयत्नों एवं घरेलू नुस्खे जादू टोने झाड़ फूँक पूजा पाठ आदि पर भी लागू हो सकती है | जिनसे लोगों को लगता है कि पहली लहर में लाभ हुआ था ,किंतु दूसरी लहर में महामारी का  स्वरूप परिवर्तन होने के कारण  रोग से मुक्ति मिलना संभव नहीं हो  पाया | 
     जिस  प्लाज्मा थैरेपी को पहली लहर में संक्रमण से मुक्ति दिलाने में सहायक माना गया था | दूसरी  लहर में उसी प्लाज्मा थैरेपी पर उसप्रकार  का विश्वास नहीं रहा | ऐसे ही रेम्डेसिविर जैसे जिन टीकों या औषधियों आदि को महामारी संक्रमण से मुक्ति दिलाने में समर्थ माना गया था | उन्हें महामारी संक्रमण से मुक्ति दिलाने में प्रभावी होता न देखकर बाद में उनके उसप्रकार के प्रभाव को नकार दिया गया | 
      इसमें विशेष बिचार किए जाने की बात यह है कि चिकित्सा के लिए जितने भी प्रकार के प्रयत्न किए जा रहे थे | उन उन उपायों चिकित्सापद्धतियों या औषधियों में एक रूपता नहीं थी | सबके गुणधर्म में आपस में इतना अधिक अंतर था कि उन सबके अलग प्रभावों से लोग स्वस्थ होते जा रहे होंगे |यह बात न  तो तर्कसंगत है और न ही विश्वसनीय है| ऐसा कैसे संभव है कि भिन्न भिन्न प्रकार की अलग अलग पद्धतियों औषधियों का प्रभाव कोरोना संक्रमितों पर एक जैसा पड़ता जा रहा हो | उसी से वे स्वस्थ होते जा रहे हों | 
     सुदूर गाँवों या जंगलों आदि में जहाँ चिकित्सकीय विकास नहीं पहुँच सका है | वहाँ भी लोग रोगी होते रहे और बिना चिकित्सा के स्वस्थ भी हो जाते रहे |                                               

                                           अनुसंधानों की आवश्यकता  और आपूर्ति 

   परंपरा से प्राप्त ज्ञानविज्ञान को कुछ विशेषज्ञ इसलिए नकार देते हैं ,क्योंकि वे उसे विज्ञान नहीं मानते हैं |इस कारण से  वेदविज्ञान जैसे महाविज्ञान का लाभ  समाज  को नहीं मिल पा रहा है | घटनाएँ घटित होने के प्रत्यक्ष  और परोक्षभेद से दो प्रकार के कारण होते हैं |विज्ञान की वर्तमान परिभाषा के अनुसार विज्ञान केवल  वही है | जिसमें सबकुछ प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा होता है | 
      ऐसी परिस्थिति में आँखों से यंत्रों से दिखने वाली प्रत्यक्ष घटनाएँ एवं उनके घटित होने के कारण तो दिखाई दे  जाते हैं ,किंतु परोक्षकारणों से निर्मित भूकंप बाढ़ तूफान चक्रवात बज्रपात  या  महामारी जैसी घटनाओं को समझना,  उनके कारणों को खोजना एवं उनके  बिषय में पूर्वानुमान लगाना परोक्षविज्ञान के बिना  संभव नहीं हो पाता है | उनके बिषय में आधार विहीन कुछ कल्पनाएँ यदि कर भी ली जाती  हैं तो वे गलत निकल जाती हैं | ऐसा होने पर इसके लिए किसी  जलवायुपरिवर्तन तो किसी घटना  के लिए स्वरूपपरिवर्तन को  जिम्मेदार  ठहराकर परोक्षविज्ञान  की कमी को पूरा किया जा रहा है |
      विशेषज्ञों के द्वारा लगाए गए कोई अनुमान पूर्वानुमान यदि गलत निकलते भी हैं और उनके गलत निकलने का कारण यदि जलवायुपरिवर्तन अथवा  स्वरूपपरिवर्तन होता भी है,तो उस प्राकृतिक प्रक्रिया की जिसे समझ हो वही उस बिषय का वैज्ञानिक  हो सकता है | जिस बिषय की जानकारी ही न हो उसके अनुमान  पूर्वानुमान आदि व्यक्त ही नहीं करने चाहिए | सर्जरी करने के लिए सर्जरी सीखना भी आवश्यक होता है |
     परोक्षघटनाएँ  जिन कारणों  से घटित होती हैं | वे कारण प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ते हैं | उन घटनाओं के निर्माण की प्रक्रिया भी नहीं दिखाई पड़ती है | ऐसी स्थिति में जिस प्रकार के परोक्षकारणों  से  भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाओं का निर्माण जिस प्रकार की परोक्ष प्राकृतिक परिस्थितियों में  होता होगा | उन परोक्ष प्राकृतिक बदलावों को समझे बिना ये कैसे कहा जा सकता है कि किसप्रकार की प्राकृतिक घटना कब घटित होने वाली है | 
       कहीं आग लगने वाली है ये बात या तो किसी को नहीं पता होती है या फिर उन्हें पता होती है जो लोग आग लगाना चाहते हैं |अज्ञात कारणों से जहाँ आग लगने वाली होती है वो कारण प्रत्यक्ष होते ही नहीं हैं |उनकी तो योजना तो परोक्ष प्रकृति में बन रही होती है या फिर किसी के मन में | इसलिए ऐसी घटना कब पैदा होगी | यह कहा जाना इसलिए संभव नहीं हैं क्योंकि परोक्षप्रकृति एवं किसी  के मन को प्रत्यक्ष आँखों  ऐसे  यंत्रों से देखा नहीं जा सकता | प्रकृति की परोक्ष प्रक्रिया का अनुभव करने के लिए कोई विज्ञान नहीं है |परोक्षविज्ञान के बिना केवल मशीनों से न तो प्रकृति को समझा जा सकता है और न ही किसी के मन को ! इसीलिए भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा बज्रपात चक्रवात आँधी तूफ़ान या महामारी जैसी घटनाएँ अचानक घटित हो जाती हैं | उनसे जो जनधन का नुक्सान होना होता है वो तो हो ही जाता है | उसके बाद विज्ञान की कोई  भूमिका ही नहीं बचती है | 
     इसीप्रकार से मन का कोई आकार नहीं होता है | इसलिए इसे प्रत्यक्ष साधनों से देखा नहीं जा सकता |इसे परोक्षविज्ञान से ही समझना होगा तब ये पता लग पाएगा कि कौन किस बिषय में या किसके बिषय में कैसा सोचता है और किसकी  कब किस प्रकार की सोच हो सकती है | परोक्षविज्ञान के बिना किसी के मन को समझना संभव ही नहीं है |  कोई  जब जैसे कार्य करेगा तब तैसा पता  लग जाएगा |कोई किसी को मार दे | इसके बाद  ये समझ ही  लिया गया कि ये हत्यारा है तो इससे उसे क्या लाभ जिसके जीवन को बचाया नहीं जा सका | 
       इसी प्रकार से  शरीर में आत्मा जब तक रहती है तब तक जीवन और जिस शरीर को आत्मा  छोड़कर चली जाए ,वो मृत !आत्मा दिखाई नहीं देती है | इसलिए उसके किसी शरीर में आने या उससे निकल जाने की योजना को परोक्ष विज्ञान के बिना न तो समझा जा सकता है और न ही पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | 
     इसीप्रकार से  निराकार जगत में अप्रत्यक्षशक्तियों की  योजना के अनुशार परोक्षजगत के निराकार वातावरण में   निर्मित  हो रही  भूकंप बाढ़ तूफान चक्रवात बज्रपात  या  महामारी जैसी घटनाओं को समझना,  उनके कारणों को खोजना एवं उनके  बिषय में पूर्वानुमान लगाना परोक्षविज्ञान के बिना  संभव नहीं हो पाता है |
      कोई हृष्टपुष्ट मजबूत शरीर वाला व्यक्ति  अचानक रोगी रहने लगता है जिसमें  उसका या किसी और का  कोई प्रत्यक्षदोष नहीं होता है | ऐसे में उसके रोगी होने का कारण क्या है | वह व्यक्ति इसी समय रोगी क्यों हुआ | इसके बाद वो स्वस्थ होगा अस्वस्थ रहेगा या उसकी मृत्यु होगी | ऐसे प्रश्नों के उत्तर केवल परोक्षविज्ञान से ही पता लगाए जा  सकते हैं | 
   ऐसे जितनी भी घटनाओं के निर्माण में मनुष्यों  का कोई योगदान नहीं होता है | उन घटनाओं के निर्माण का कारण क्या है | ऐसी घटनाएँ घटित कब सकती हैं |परोक्षविज्ञान के बिना ऐसे प्रश्नों के उत्तर खोजे नहीं जा सकते हैं |     
                                            पूर्वानुमानों की तीन श्रेणियाँ 
 
    किसी घटना के पैदा होने की निराकार  प्रकृति योजना को परोक्षविज्ञान के आधार पर समझना !फिर उसी  घटना के साकार स्वरूप में परिवर्तित होने पर उसके प्रारंभिक चिन्हों को देखना और समझना | इन दोनों  के आधार पर उस घटना के प्रसव और  विस्तार को समझना होता है | 
   परोक्षविज्ञान  संबंधी अनुसंधानों के बिना ये  कैसे कहा जा सकता है किस वर्ष मानसून कितनी तारीख को आएगा और कितनी तारीख को जाएगा इस वर्ष कैसी वर्षा होगी | भूकंप कब आएगा | महामारी या उसकी कौन सी लहर किस वर्ष आएगी कब जाएगी | जलवायुपरिवर्तन के कारणआज के सौ दो  सौ वर्ष बाद क्या होगा क्या नहीं|ये पता लगाया जाना उन अनुसंधानों के द्वारा संभव नहीं है, जिनके द्वारा  भूकंप बाढ़ तूफान चक्रवात बज्रपात  या  महामारी जैसी घटनाओं के बिषय में सही पूर्वानुमान लगाया जाना दो दिन  पहले भी संभव नहीं है | ऐसी स्थिति में प्राकृतिक आपदाओं के बिषय में अफवाहें फैलाने वाले उन विशेषज्ञों  को संयमित किए जाने की आवश्यकता है | जो बिना किसी वैज्ञानिकआधार के थोड़े थोड़े अंतराल में हिमालय या किसी अन्य क्षेत्र में किसी बड़े भूकंप के आने की अफवाहें फैलाया करते हैं | परोक्षवैज्ञानिक आधार के बिना यह पता लगाया जाना कैसे संभव है कि भूकंप के निर्माण की प्रक्रिया कहाँ प्रारंभ हो रही है | 
    आकाश में बादलों की उपस्थिति देखकर उनके आधार पर वर्षा होने के  बिषय में पूर्वानुमान लगाना उसी प्रकार से संभव नहीं है | जिसप्रकार से धुएँ को देखकर आग के भावी विस्तार का पता नहीं लगाया जा सकता है | धुएँ को  देखने से केवल आग  के विस्तार  का है | ऐसा अनुमान लगा लिया जाता है किंतु इससे आग लगने की अप्रत्यक्ष योजना तो पता नहीं लग पाती है जबकि घटना का आरंभ वहीं से हुआ होता है | जिस घटना का निर्माण एक बार हो चुका  है | वो तो घटित  होगी ही उसे रोका तो जा नहीं  सकता | उसके निर्मित होने की प्रक्रिया के आधार पर उसके  भावी विस्तार एवं घटित होने के समय का पता लगाना होता है | 
    धुआँ देखकर ये नहीं पता लगाया जा सकता है कि आग जल रही या केवल सुलग रही है ! ये आग इतने में  ही शांत हो जाएगी  या और अधिक बढ़ जाएगी इसका स्वरूप कितना तक भयंकर हो सकता है | ये  केवल धुआँ देखने से पता नहीं  लग पाएगा | इस प्रक्रिया में तो आग जब जैसा स्वरूप धारण करती जाएगी तब तैसा पता सभी को लगता जाएगा |जिसके पास जितने दूर तक देखने का यंत्र होगा वो उतने पहले देख लेगा किंतु उससे भविष्य का नहीं पता लग पाएगा कि इसका विस्तार कितना तक हो सकता है | इससे मौसम समाचारों की तरह ही केवल आँखों देखा हाल ही बताया जा सकता है | भविष्य के स्वरूप का अंदाजा लगाया जाना संभव नहीं है | 
    कुल मिलाकर इस संपूर्ण  प्रक्रिया में विज्ञान की तो कहीं कोई भूमिका ही नहीं है,फिर मौसमविज्ञान संबंधी भविष्यवाणियों के नाम पर मौसम संबंधी समाचार ही बताए जाते हैं | उसमें विज्ञान की भूमिका कहीं नहीं है |भविष्य में  किसी घटना के बिषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए  भविष्यविज्ञान तो  चाहिए ही | 
      जिस प्रकार से जल में पड़ी किसी चीज को खोजने के लिए सुपरकंप्यूटर की नहीं प्रत्युत ऐसे चश्मे की आवश्यकता होती है | जिससे जल के अंदर की वस्तु को देखा जा सके | ऐसे ही भविष्य में कौन घटना कब घटित हो सकती है यह देखने के लिए सुपरकंप्यूटर की नहीं प्रत्युत ऐसे भविष्यविज्ञान की आवश्यकता होती है | जिससे भविष्य में झाँका या देखा सही अनुमान लगाया जा सकता हो | 
   भविष्यविज्ञान के बिना अत्यंतउत्कृष्ट संगणक भी भविष्य में घटित होने वाली भूकंप वर्षा बाढ़ सूखा बज्रपात चक्रवात आँधी तूफ़ान या महामारी जैसी घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान लगाने में कैसे सहायक हो सकता है |वैसे भी भविष्यविज्ञान  के बिना  प्राकृतिक घटनाओं  बिषय में पूर्वानुमान लगाना प्रायः असंभव है |परोक्ष विज्ञान को समझना वैदिक विज्ञान  के बिना संभव नहीं है |                      
 
                                             महामारी का जन्म और विस्तार 
  
         महामारी  के  पैदा होने का प्रत्यक्ष कारण तो कुछ समझ में आ नहीं रहा है| किसी देश विशेष की लैब से निकलकर  यह  वायरस विश्व के अधिकाँश देशों में फैला है | मेरी जानकारी के अनुसार ऐसा कहे जाने  का  कुछ  तर्कसंगत  वैज्ञानिक आधार नहीं है | यह एक आशंका मात्र है | 
       इसे यदि सच मान भी  लिया जाए तो वहीं रहती महामारी का विस्तार संपूर्ण विश्व में कैसे हुआ | माचिस की तीली जलाकर कोई कहीं भी फ़ेंक सकता है किंतु वहाँ आग जलना तभी संभव है, जब उस स्थान पर कोई ज्वलनशील पदार्थ गैस या ईंधन आदि उस आग की पहुँच में हो | ईंधन नहीं मिलेगा तो वह जलती हुई तीली उसी स्थान पर तुरंत बुझ जाएगी | 
        ऐसी स्थिति में महामारी के लिए किसी लैब से निकले जिस वायरस को जिम्मेदार बताया  जा  रहा है | उस वायरस को  यदि जलती हुई तीली मान लिया जाए और  कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले  लोगों को  महामारी रूपी आग का ईंधन  मान  लिया जाए तो प्रश्न उठता है कि विश्व की इतनी विशाल जनसंख्या  की प्रतिरोधक क्षमता यदि इतनी तेजी से घटती जा रही  थी तो किसी को पता क्यों नहीं चला | विशेषकर नगरों महानगरों में लोगों के शरीरों  की स्वास्थ्य संबंधी जाचें  तो अक्सर होती ही रहती   हैं | उनमें इसके संकेत  मिले ही नहीं या ध्यान नहीं दिया जा सका |  महामारी पैदा  होने का कारण खोजने से पहले यह खोजे  जाने की आवश्यकता है कि विश्व की इतनी विशाल जनसंख्या  की प्रतिरोधक क्षमता इसी समय इतनी तेजी से घटते जाने का कारण क्या था |   
     लोग महामारी से संक्रमित हुए या फिर उनमें प्रतिरोधक क्षमता की कमी थी | इसलिए संक्रमित हुए | उनके संक्रमित  होने का कारण यदि प्रतिरोधक क्षमता की कमी ही थी तो लोगों के अस्वस्थ होने में  महामारी की  भूमिका ही  क्या  बचती है !क्योंकि प्रतिरोधक क्षमता की कमी से तो लोग महामारी के बिना भी रोगी होते देखे जाते हैं | महामारी समाप्त होने के वर्षों बाद तक  उसी प्रतिरोधक क्षमता की कमी के कारण उठते बैठते  हँसते खेलते नाचते नहाते भोजन करते विश्राम करते लोगों की अचानक मृत्यु होते देखी जा रही है | उस समय महामारी तो नहीं थी |  प्रतिरोधक क्षमता कम होने  के कारण भले ऐसी  घटनाएँ घटित होती रही हों | 
     वैसे भी भूकंप बाढ़ तूफान चक्रवात बज्रपात  या  महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाओं को घटित होने से रोका जाना तो संभव होता नहीं है | ये घटित  तो होती ही हैं | इसलिए बस्तियों से दूर जंगलों में समुद्रों में यदि ऐसी घटनाऍं घटित होती हैं उनसे यदि मनुष्यों का जीवन प्रभावित नहीं  होता है तो  इनके घटित  होने से किसी को कोई समस्या नहीं है |समस्या  तब होती है जब इनमें जनधन का नुक्सान होता है | इनसे जनधन की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु  अनुसंधान करने  की जिम्मेदारी वैज्ञानिकों को सौंपी जाती है |
       ऐसी हिंसक घटनाओं से सुरक्षा के लिए मजबूत तैयारियाँ पहले से  करके  रखनी होती हैं | इन के  बिषय में सही सटीक पूर्वानुमान काफी पहले से लगाने की आवश्यकता होती है | यदि पहले से सही पूर्वानुमान न लगाए जा सकें और उसके आधार पर अग्रिम तैयारियाँ करके न रखी जा सकें तो कोरोना महामारी की तरह ही समस्त आपदाओं से समाज को स्वयं जूझना पड़ता है | ऐसी अनुसंधानशून्य  अवस्था में  जनधन का नुक्सान अधिक हो जाता हैं ,जैसा कोरोना महामारी के समय हुआ  था  | 
       कुल मिलाकर प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में अनुसंधान जिस प्रक्रिया से किए जा रहे हैं | वह प्रक्रिया प्राकृतिक घटनाओं के  बिषय में अनुसंधान करने में सक्षम है या नहीं | जिसे इसका  विज्ञान माना जा रहा है | किस  वैज्ञानिकपद्धति से कितने अनुसंधान किए जा रहे हैं | कैसे किए जा  रहे हैं | कौन कर रहा है | उन पर कितना धन खर्च किया  जा रहा है | इन सभी बातों पर बिचार करने के बजाए उनका मूल्यांकन उनकी गुणवत्ता के आधार पर किया जाना चाहिए | जिन घटनाओं से जनधन की सुरक्षा के लिए जो प्रयत्न किया  जा रहा है  | वे  उसप्रकार के संकटों के समय समाज की सुरक्षा करने में कितना सहायक होता है  |                                                  

                             महामारीजनित संक्रमण बढ़ने घटने का कारण  

     प्रत्येक देश और प्रत्येक व्यक्ति महामारी से बचाव के  लिए अपने अपने हिसाब से प्रयत्न करता रहा है | बचाव की प्रक्रिया में पर्याप्त भिन्नता रही है | इसलिए संक्रमितों  के द्वारा बचाव के लिए प्रयत्न तो अलग अलग प्रकार के किए  जाते थे किंतु परिणाम एक जैसे निकलते  थे | 
     महामारी के आने और जाने का कारण यदि समय न होता  तो संपूर्ण  विश्व में एक साथ ही महामारी और उसकी लहरों का आना और जाना संभव न था | ऐसी स्थिति में तो जहाँ जैसी लापरवाही होती वहाँ वैसे परिणाम निकलते | महामारी संक्रमण बढ़ने घटने पर यदि लॉकडाउन  का प्रभाव पड़ता तो जिन देशों में लॉकडाउन लगाया गया होता वहाँ संक्रमण न  बढ़ता और बढ़ा हुआ संक्रमण लॉकडाउन लगते ही तेजी से घटने लगता | ऐसे ही जिन देशों  में लॉकडाउन न  लगाया  गया होता | उनमें संक्रमण तेजी से बढ़ना चाहिए था किंतु ऐसा होते नहीं देखा जाता रहा है | इससे ये विश्वास हुआ कि महामारी केवल समय प्रदत्त निर्देशों का  ही  पालन करती  जा रही थी | 
     कोई देश लॉकडाउन लगाता था कोई नहीं लगाता था | कोई कोविड नियमों का पालन करता था कोई नहीं करता था | कोई  किसी एक औषधि का सेवन करता था  तो कोई किसी दूसरी औषधि  का सेवन करता था |  साधन संपन्न  लोग बहुत बड़े बड़े चिकित्सालयों में  चिकित्सा का लाभ ले रहे होते थे तो बहुत लोगों को चिकित्सा दूर दूर तक सुलभ नहीं थी | कोई  पथ्य परहेज करता था तो कोई बिल्कुल नहीं करता  था | अलग अलग नियमों के पालन करने या न करने ऐसे ही औषधियों का सेवन करने या न करने जैसे परस्पर विरोधी आचार व्यवहार अपनाने के  बाद भी परिणाम एक जैसे ही निकलते  रहे | इससे  भरोसा  होता है कि महामारी केवल समय से प्रभावित हो रही थी | 
 
     संक्रमण बढ़ने के लिए कोविडनियमों का पालन न करने जैसी  मनुष्यकृत  लापरवाहियों  को यदि जिम्मेदार माना  जाए तो जहाँ जैसी लापरवाही  होती रही वहाँ उसी अनुपात में संक्रमण  बढ़ना चाहिए था | सभी देशों में एक साथ नहीं बढ़ना चाहिए था | इसका मतलब महामारी संबंधी संक्रमण बढ़ने  के लिए समय ही  कारण  था |     
       इसीप्रकार से  महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए जितने प्रकार के भी प्रयत्न  किए जाते थे | सभी प्रयत्न एक जैसे नहीं हुआ करते थे| उन सभी में सभीप्रकार के अंतर रहे होंगे | कोई लाभ करते होंगे कोई नहीं करते होंगे | किन्हीं  का दुष्प्रभाव भी  होता होगा | कुछ लोग स्वस्थ होने  के लिए ऐसे उपाय अपनाते थे और कुछ नहीं भी अपनाते थे | ऐसे उपायों में औषधियों में चिकित्सा पद्धतियों में पर्याप्त अंतर होने के बाद भी संक्रमितों पर पड़ने वाले  उनके प्रभाव में अंतर नहीं देखा जाता था,जबकि किसी लहर  के समाप्त होने  के लिए यदि गतिविधियों को जिम्मेदार माना जाए तो जिसने जैसे उपाय अपनाए हों उन्हें संक्रमण से उसी प्रकार की मुक्ति मिलनी चाहिए |यद्यपि व्यवहार में ऐसा  होता नहीं रहा है |
   जिन्होंने कोरोना से सुरक्षा के लिए  टीका लगवाया | उनमें से बहुत लोग कोरोना से संक्रमित होते रहे | उन्हें यह भरोसा भी  नहीं दिया जा  सका कि तुम्हें अब महामारी से कोई खतरा नहीं है और जिन्होंने टीका  नहीं लगवाया उनमें  से भी बहुत लोग ऐसे रहे जिन्हें संपूर्ण कोरोना काल में जुकाम तक नहीं हुआ | वैसे भी जिन्होंने टीका नहीं लगवाया वे टीका लगवाने वालों से अधिक  संक्रमित  हुए हों | ऐसा भी नहीं है | कुछ लोग टीकों की दो से अधिक डोज लेने पर भी संक्रमित हुए और कुछ लोगों के एक भी डोज नहीं लगी फिर भी स्वस्थ बने रहे |       कुल मिलाकर संक्रमण जब बढ़ने लगता था तो संपूर्ण विश्व में एक साथ बढ़ता था और जब कम होने लगता था तब संपूर्ण विश्व में एक साथ कम होता था |वैक्सीन कुछ  देशों को मिली कुछ को नहीं मिल पाई ! कुछ देशों को पहले मिली कुछ देशों को बाद में मिल पाई , फिर भी महामारी जब समाप्त हुई तब सभी देशों में एक ही साथ समाप्त होते देखी गई थी | ऐसे ही जब आई थी तब भी सभी देशों में साथ साथ ही आई थी और  जब गई तब भी साथ साथ ही गई है |
     ऐसी परिस्थिति  में महामारी संबंधी संक्रमण बढ़ने घटने के लिए  उस वास्तविक कारण को खोजे जाने की आवश्यकता है | जो वैश्विक दृष्टि से सभी लोगों को   एक समान प्रभाव से प्रभावित कर रहा हो | 
 
        
 

                                 संक्रमण बढ़ने घटने का कारण हो सकता है समय !

    महामारी पैदा और समाप्त होने के लिए या संक्रमण बढ़ने और घटने के लिए यदि अभी तक मनुष्यकृत किसी कारण को तर्कसंगत रूप से जिम्मेदार नहीं सिद्ध किया जा सका है| संक्रमण बढ़ने या घटने के लिए जिन जिन कारणों की कल्पना की गई है | उन कल्पनाओं का महामारी के साथ अभी तक कोई संबंध सिद्ध नहीं हो सका है | इसके साथ ही महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए जितने भी प्रयत्न किए गए हैं | उनका  महामारी या महामारी संक्रमितों पर क्या पड़ा है | इसे भी महामारी के  साथ जोड़कर प्रमाणित नहीं किया जा सका है | 

      इसलिए ऐसी कल्पनाओं  आशंकाओं से ऊपर उठकर महामारी के बिषय  में कुछ ऐसा सोचे जाने की आवश्यकता  है| जिसे महामारी  के साथ मिलान करने पर सही घटित  होते  दिखाई  दे| इसी कसौटी पर अनुसंधानों को भी कसा  है | उनके सही निकलने पर आज मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि  महामारी पैदा और समाप्त होने का एवं संक्रमण बढ़ने और घटने का कारण ही  है | समय का सभी देशों पर ,सभी स्थानों पर एवं सभी प्राणियों पर एक  समान प्रभाव पड़ता है | इसीलिए सभी लापरवाहियों एवं सुरक्षा के लिए किए जाने वाले अलग अलग उपायों के  बाद भी सभी देशों एवं स्थानों पर रहने वाले प्राणियों को  महामारी संबंधी प्रायः  एक प्रकार की परिस्थिति का सामना करना पड़ता  रहा है |  

     महामारी के बिषय में मेरे द्वारा सरकार  को समय समय पर भेजी जाती रही पूर्व सूचना के अनुसार किसी लहर के आने या जाने का जब समय आता था | लगभग उसीसमय संक्रमितों की संख्या बढ़ने या  घटने लगती थी | ऐसा सभी देशों में  एक साथ होता  था | 

     
 
महामारी की लहरें और मेरे पूर्वानुमान 
 
     
    महामारी संक्रमण से मुक्ति दिलाने के लिए जो जहाँ जिस प्रकार के प्रयत्न कर रहा था | वो यह मानते जा रहा था कि इस समय संक्रमण कम होने का कारण उसके द्वारा किए जा रहे कोरोना से मुक्ति दिलाने वाले प्रयत्नों का ही परिणाम है  | सभी अपने अपने प्रयत्नों को ट्रायल में सफल मानते चले  जा रहे थे | सभी चिकित्सा पद्धतियाँ  इसप्रकार के भ्रम का शिकार हो  रहीं थीं | 
       महामारी  से लोग जब संक्रमित होने लगते थे तब  उपायों का प्रभाव नहीं दिखता था | उपायों की उपेक्षा करती हुई महामारी के प्रभाव से  संक्रमितों की  संख्या बढ़ती चली जाती थी |  महामारी में  एक  बात विशेष  रूप  से देखी गई कि महामारी  अपने  निर्धारित समय से आई और अपने अपने निर्धारित समय पर ही गई थी | भविष्य में उसप्रकार का समय जब आएगा तो फिर आ जाएगी | 
     ऐसे ही महामारी की प्रत्येक लहर अपने अपने निर्धारित समय पर ही आती जाती रही है |ये सब कुछ प्राकृतिक रूप से घटित होता रहा है|ऐसा मैं इसलिए विश्वासपूर्वक कह  सकता हूँ ,क्योंकि  समय के आधार  पर ही इनके पूर्वानुमान लगाकर मैं आगे से आगे सरकार  को भेजता रहा हूँ | जो सच निकलते रहे हैं | वो  समय संबंधी हमारी अनुसंधान प्रक्रिया की सच्चाई को प्रमाणित करते हैं | 
      भारत में 2020 के मार्च अप्रैल में संक्रमण बढ़ता रहा किंतु मई महीने के प्रथम सप्ताह से ही संक्रमण कम होना  शुरू हो गया था ये जून जुलाई तक इतना कम होता चला जा रहा था कि वैक्सीन ट्रॉयल के लिए रोगियों का मिलना बहुत कम हो गया था | ऐसा होने का कारण क्या था ? इस समय किसी को न तो महामारी के बिषय में कुछ पता था और न ही औषधि के बिषय में और न ही चिकित्सा के लिए कोई परिणामप्रद प्रभावी प्रयत्न ही किए जा पा रहे थे | इसके बाद भी कोरोना संक्रमण दिनों दिन घटता जा रहा था | इसका कारण क्या हो सकता है  
     इसमें  बिचारणीय यह भी है कि 2020 में अप्रैल की 24 तारीख के बाद से लेकर और जून के  महीनों तक बिना बिना किसी औषधि या चिकित्सा आदि मनुष्यकृत प्रयास के ही  संक्रमितों को संक्रमण  से मुक्ति मिलने लगी थी |लोग स्वतः स्वस्थ होते जा  रहे थे | जुलाई तक 2020 तक ऐसा चलता रहा था | इसीलिए संक्रमण बिना किसी प्रयत्न के  दिनों दिन कम होता चला जा रहा था | 19 मार्च 2020 को पीएमओ की मेल पर मेरे द्वारा  भेजे  गए पूर्वानुमान में मैंने ऐसा ही लिखा है | हमारे द्वारा यह गणना समय के अनुसार की गई थी |
      इससमय केवल संक्रमण ही नहीं घट रहा था, प्रत्युत जिनके द्वारा जहाँ जो औषधि बनाई जा रही थी उनके ट्रायलों को वे सफल मानते जा रहे थे |इसी 2020 के इन्हीं मई और जून के  महीनों में  कोरोना संक्रमितों पर रेमडेसिविर के ट्रॉयल को सफल मान  लिया गया  था | इसी 2020 के इन्हीं मई और जून के  महीनों में  प्लाज्मा थैरेपी को भी सफल मान लिया गया था | इसी समय  वैक्सीन के ट्रायलों के सफल होने की  बात कही जाने लगी थी |सभी अपने अपने पक्ष में दावे करने लगे | सभी पद्धतियाँ  औषधियाँ प्रयत्न एवं घरेलू नुस्खे जादू टोने झाड़ फूँक आदि करने वाले  लोग भी कुछ रोगियों पर अपने अपने प्रयोग करने  एवं  उनके रोग मुक्त के होने  के बाद अपने अपने प्रयोग सफल मानने लगे | यद्यपि प्रत्यक्ष परीक्षणों की प्रक्रिया भी यही है |जिस कार्य को किया जाए यदि वो कार्य हो भी जाए तो इसका श्रेय कर्ता को  ही मिलता है | 
   कुलमिलाकर इस काल्पनिक सफलता से अत्यंत उत्साहित कुछ लोग महामारी को पराजित  कर देने या महामारी पर विजय प्राप्त कर लेने या महामारी  को खदेड़ देने जैसे दावे करने लगे | ऐसी बातों पर भरोसा करके समाज को  भी लगने लगा कि अब हमें सुरक्षित बचा ही लिया  जाएगा | महामारी से हमें अब कोई भय नहीं है |  दूसरी लहर आने के बाद ऐसे दावों की सच्चाई सामने आई  कि  उन दावों  में कोई सच्चाई नहीं थी | 
    महामारी की दूसरी लहर के बाद  मई 2021 में प्लाज्माथैरेपी को कोरोना संक्रमितों पर निष्प्रभावी  बता दिया  गया | 
     इसीप्रकार से अप्रैल मई 2021 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रेमडेसिविर को कोरोना संक्रमितों पर निष्प्रभावी  बता दिया  था |  
     इसीप्रकार से कोरोना से मुक्ति  दिलाने संबंधी  सभी पद्धतियों व्यक्तियों आदि के सभी दावे स्वतः खारिज हो गए | सबको ये भरोसा हो गया कि पहली लहर में संक्रमितों की संख्या प्राकृतिक कारणों से घटी थी  | वह मनुष्यकृत प्रयासों का परिणाम नहीं  था |


 
 
 
 


 



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

r t i