8-7-2025Vattttttadi
प्रकृति जीवन और प्रतिरोधक क्षमता !
मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित
त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |जिस प्रकार से
किसी कारखाने में बिजली बार बार आने जाने लगे तो मशीनें कभी बहुत तेज
भागेंगी और कभी बंद होने लगेंगी | ऐसे समय उनमें आग न लग जाए या वे मशीनें
बिगड़ न जाएँ |इसके लिए या तो मशीनें बंद कर दी जाएँ या फिर जनरेटर आदि
वैकल्पिक ऊर्जा से उन्हें चलाते रहा जाए |
इसीप्रकार से वात पित्त आदि का प्रभाव जब अचानक बढ़ने घटने लगता है तब उस कारखाने की मशीनों की तरह प्राकृतिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगती है | इस असंतुलन से भूकंप
आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ घटित होने लगती हैं |इसी प्रकार के अवरोध से रोग महारोग (महामारी)
जैसी घटनाएँ घटित होने लगती हैं | ऐसे समय में मशीनों को सुरक्षित
रखते हुए चलाते रहने के लिए जिस प्रकार से जनरेटर आदि वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग किया जाता है | उससे मशीनें भी नहीं बिगड़ती हैं और काम भी चलता रहता है | यह वैकल्पिक ऊर्जा ही प्रतिरोधक
क्षमता है जो प्राकृतिक असंतुलन में भी प्रकृति और जीवन को सुरक्षित बचाए रखती है और सभी कार्य भी संचालित होते रहते हैं |
कुल मिलाकर प्रतिरोधक
क्षमता से हमारा आशय ऐसी परोक्षऊर्जा से है जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले परोक्षस्रोत समयप्रभाव से कुछ
समय के लिए अचानक अवरुद्ध होने लग जाएँ, अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने
लगे | ऐसे समय यह परोक्षऊर्जा (प्रतिरोधक) क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख
सके |
प्रतिरोधक
क्षमता जब मजबूत होती है तब प्रकृति और जीवन में कई बार ऐसी बड़ी बड़ी प्राकृतिक या मनुष्यकृत
दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं | उन दुर्घटनाओं में बुरी तरह प्रभावित होकर
भी कुछ लोग बाल बाल बच जाते हैं | जिनमें किसी को बचने की आशा ही नहीं
होती है | ये उनकी अपनी प्रतिरोधक क्षमता का ही प्रभाव होता है | जहाँ
मनुष्यकृत किसी भी शक्ति का कोई बश नहीं चलता है | वहाँ से भी यह परोक्ष
ऊर्जा व्यक्ति को सुरक्षित बचाकर लाती है | शरीरों
में यह मनुष्यों के अपने अपने सदाचरणों से मिर्मित होती है | किसी देश
प्रदेश आदि में उसके शासक के सदाचरणों से निर्मित होती है | इसलिए
प्रत्येक शासक एवं आमजन को प्रतिपल अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते रहना
चाहिए |
शासकों की इसी प्रतिरोधक क्षमता के प्रभाव से भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़
बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ बहुत वेग से आकर
भी अपनी सीमा लाँघती नहीं हैं | भूकंप की तीव्रता यदि 15 या 20 तक भी
पहुँच जाए तो मनुष्य उसे रोक भले न सकते हों किंतु मनुष्यों की सामूहिक
प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक घटनाओं को नियंत्रित करके रखती है | यदि ऐसा न
होता तो भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ कभी भी कितना भी भयानक हिंसक स्वरूप धारण कर सकती हैं | ऐसा
ही प्राणियों के साथ भी हो सकता है | बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ घटित होती
हैं | उनसे बहुत लोग प्रभावित और पीड़ित भी होते हैं ,किंतु उनसे संपूर्ण
सृष्टि कभी
समाप्त नहीं होती है | ये प्रतिरोधक क्षमता का ही अनुशासन है| प्रतिरोधक
क्षमता की आवश्यकता प्रकृति और जीवन दोनों को ही होती है | इसलिए इसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न निरंतर करते रहना चाहिए |
प्राकृतिकरूप से भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात या महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाएँ तो अपने अपने निर्द्धारित समय पर घटित होती ही रहती हैं | प्रतिरोधक
क्षमता जब जितनी कमजोर रहती है तब उनका वेग उतना ही अधिक बढ़ जाता है | वे
उतनी ही अधिक हिंसक हो जाती हैं |यदि सामूहिक रूप से प्रतिरोधक क्षमता
मजबूत होती है तब भी पूर्व निर्द्धारित घटनाओं को तो घटित होना ही होता है ,किंतु प्रतिरोधक
क्षमता के प्रभाव से उनका वेग बहुत कम हो जाता है | जिससे प्रतीक रूप में
वे घटित होकर निकल जाती हैं | सभी प्राणी सुरक्षित बने रहते हैं |
प्रकृति और जीवन को सुरक्षित चलाने में प्रमुख प्रतिरोधक क्षमता ही है
| प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने पर उस प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के न
घटित होने पर भी लोग रोगी होते देखे जाते हैं | प्रतिरोधक क्षमता जिनकी अपनी समाप्त हो जाती है उनका जीवन पूरा हो जाता है |
प्रतिरोधक क्षमता के स्वभाव शक्ति एवं बढ़ने घटने का कारण समझे बिना प्राकृतिक घटनाओं एवं प्राकृतिक रोगों के बिषय में न तो पूर्वानुमान
लगाया जा सकता है और न ही इन्हें समझा जा सकता है | किसी भी घटना या रोग
को समझे बिना न तो उससे सुरक्षा के उपाय सोचे जा सकते हैं और न ही ऐसे
प्राकृतिक रोगों से सुरक्षा के लिए औषधि बनाई जा सकती है | जिस रोग की
प्रकृति ही नहीं पता होगी उसके लिए चिकित्सा की व्यवस्था कैसे की जा सकती
है |
प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होते ही असंतुलित होने लगते हैं वातादि दोष
त्रिदोषों का संतुलित होना आवश्यक होता है| जब तक ऐसा
होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ रहने तक प्राकृतिक
उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है,अर्थात ऐसा अवसर जब तक रहता है
तबतक भूकंप आँधी तूफान अति वर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक
आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है | ऐसी घटनाएँ यदि घटित होती भी हैं तो
उनका वेग बहुत कम होता है | इसलिए उनसे जनधन हानि बहुत कम या फिर बिल्कुल
नहीं होती है |
प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ
होते ही यह समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक वातावरण में प्रतिरोधक क्षमता
दिनोंदिन कमजोर हो रही है | ऐसे समय भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात
जैसी हिंसक घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में बार बार घटित होते
देखी जाती हैं |
ऐसे ही प्राणियों में प्रतिरोधक क्षमता घटने के कारण स्वास्थ्य बिपरीत
बड़ी बड़ी घटनाएँ घटित होने लगती हैं | छोटे छाटे कारणों से बड़े बड़े रोग
होने लगते हैं | छोटे छोटे रोग बहुत जल्दी बड़े बड़े स्वरूप धारण करते देखे
जाते हैं | ऐसे रोगियों पर चिकित्सा का प्रभाव बहुत कम या कई बार तो
बिल्कुल नहीं पड़ता है | सघन चिकित्सा का लाभ लेते हुए भी छोटे छोटे रोगों
को बड़े बड़े स्वरूप धारण करते देखा जाता है | ऐसे लक्षण सामूहिक या
व्यक्तिगत प्राकृतिक रोगों या महारोगों (महामारी) के आने के कुछ वर्ष पहले
से घटित होते देखे जाते हैं |
प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही शरीर इसीक्रम में धीरे
धीरे रोगी होते चले जाते हैं | बहुत लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप
से महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं| प्राकृतिक वातावरण में
त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत
ऐसा होने में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |
कुल मिलाकर मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित
त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |प्रतिरोधक
क्षमता से हमारा आशय ऐसी ऊर्जा से है | जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले स्रोत कुछ
समय के लिए अचानक अवरुद्ध हो जाएँ | !अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने
लगे | ऐसे समय यह प्रतिरोधक क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख
सके | इसके लिए त्रिदोषों का संतुलित होना आवश्यक होता है| जब तक ऐसा
होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ रहने पर प्राकृतिक
उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है|ऐसा अवसर जब तक रहता है तबतक भूकंप आँधी तूफान अतिवर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है |
प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में घटित होते देखी जाती हैं |प्राणियों की प्रतिरोधक
क्षमता घटने लगती है |जो हमेंशा नहीं देखी जाती हैं |यह प्रक्रिया महामारी आने के कुछ वर्ष पहले
ही प्रारंभ हो जाती है |प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही इसीक्रम में धीरे धीरे शरीर रोगी होते चले जाते
हैं | कुछ लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं|
प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों
के असंतुलित होने की प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने
में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |
कुलमिलाकर त्रिदोषों की
साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन
प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्सा शास्त्र का उद्देश्य है |
सामान्यरूप से
चिकित्सा का मतलब हमारे शरीरों में असंतुलित हुए वात पित्त कफ आदि को
संतुलन में लाना ही होता है | त्रिदोषों को जिस किसी भी प्रकार से संतुलित किया
जा सके वह सब चिकित्सा है|शरीरों
में वात पित्त कफ के असंतुलित हो जाने से यदि शरीर रोगी हो सकते हैं,तो इनके संतुलित हो जाने से शरीर स्वस्थ क्यों नहीं हो सकते हैं |
वातादि के असंतुलन से पैदा होती हैं महामारियाँ !
आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी इन पंचतत्वों से संसार एवं शरीर दोनों का निर्माण होता है|इन्हीं पंचतत्वों में से आकाश अर्थात खाली जगह और पृथ्वी अर्थात ठोसतत्व स्थिर रहते हैं | इन दो के अतिरिक्त वायु अग्नि और जल जो तीन बचते हैं| ये तीनों ही संतुलित मात्रा में रहकर प्रकृति और शरीरों को धारण करते हैं |
इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है| इन तीनों की मात्रा असंतुलित होने पर ये
प्रकृति और शरीरों को रोगी बनाते हैं | इसलिए इन्हें त्रिदोष कहा जाता है |
आयुर्वेद की भाषा में वायु अग्नि जल को ही वात पित्त और कफ के नाम से जाना जाता है |पित्त का मतलब आग एवं कफ का मतलब जल होता है| वायु को ही वात कहते हैं |
वात पित्त और कफ ये तीनों प्रकृति तथा प्राणियों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है |यही वात पित्त और कफ जब
असंतुलित अर्थात दूषित हो जाते हैं | उस समय प्रकृति और जीवन दोनों को रोगी करने लगते हैं|ऐसे समय इन्हें त्रिदोष कहा जाता है|
प्राकृतिक वातावरण में प्रकृति को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |प्रकृति को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ रह सकता है | उस मात्रा से
कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं| जो
प्रकृति के लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह
असंतुलन कई बार प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला
होता है |
वात, पित्त,और कफ़ में
से किसी एक दोष का प्रभाव भी यदि निर्धारित
मात्रा से बढ़ने या कम होने लगे तो जहाँ प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने
लगता है| यदि यह
प्रभाव बहुत अधिक असंतुलित होने लगे तो प्राकृतिक वातावरण अधिक बिगड़ने लग
जाता
है|जिससे तरह तरह की प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं|ऐसा प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के
प्रतिकूल होने लग जाता है | ऐसे ही यदि कोई दो दोष असंतुलित हो जाएँ तो वातावरण और अधिक बिगड़ता जाता है |जिससे प्राकृतिक आपदाएँ अधिक घटित होने लगती हैं |यदि
तीनों दोष असंतुलित हो जाएँ तो प्राकृतिक वातावरण बहुत अधिक बिगड़ जाता है
|जीवन में में ऐसा होता है तो स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाता है |
मनुष्य आदि सभी प्राणियों को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |जीवन को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में
मिलने पर ही मनुष्यादि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस प्रकार के
प्राकृतिक वातावरण में ही साँस लेकर मनुष्य आदि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं |
उस मात्रा से
कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं | जो प्राणियों के लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह
असंतुलन रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला
होता है | इस असंतुलन से मनुष्यादि जीवों में कुछ उसप्रकार के रोग महारोग आदि पैदा होने लगते हैं|
वात पित्त आदि के असंतुलित होने पर उसप्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ भी
अधिक मात्रा में घटित होने लगती हैं | जो जिस क्रम और स्तर पर हमेंशा नहीं
देखी जाती हैं | प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होते ही
भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ निर्मित होने लगती हैं |ऐसा यदि लंबे समय तक होता रहा तो रोग और महारोग जन्म लेते देखे जाते हैं |
प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित
होने की प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष
लग जाते हैं | इसलिए ऐसे परिवर्तनों को प्रयत्न पूर्वक पहले से पहचाना जा सकता है | इसमें विशेष बात यह है कि जब
जिनके त्रिदोष असंतुलित हो रहे होते हैं तब उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटनी
शुरू हो जाती है | ऐसे लोग महामारी के बिना भी रोगी होते देखे जाते हैं
| त्रिदोषों का असंतुलन प्राकृतिक रूप से प्रारंभ होते ही प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता घटने लगती है |
विशेष बात यह है कि इन त्रिदोषों में से किसी एक दोष से पीड़ित रोगी की
चिकित्सा करना आसान होता है | किसी को कफ दोष अर्थात सर्दी से कोई रोग हुआ
हो तो चिकित्सा की जानी इसलिए आसान होती है, क्योंकि उसे ठंडे खान पान रहन
सहन आदि से बचाते हुए गर्मप्रवृत्ति के खान पान रहन सहन औषधियों आदि से रोगमुक्ति मुक्ति मिल जाती है |
इसीप्रकार से किन्हीं
दो दोषों के प्रभाव से जो रोग पैदा होते हैं|उनमें रोग का स्वभाव पता किया
जाना कठिन होता है| इसलिए ऐसे रोगों से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा की जानी
भी कठिन होती है|ऐसे ही तीनों दोषों से पैदा हुए रोग और अधिक भयंकर हो
जाते हैं |जिनको समझना एवं उनकी चिकित्सा किया जाना अत्यंत कठिन या असंभव
सा होता है |
कुलमिलाकर जिन शरीरों में जब भी त्रिदोष असंतुलित होंने लगेंगे |उस समय उन लोगों के शरीरों में रोग पैदा होंगे ही | इतना अवश्य है कि प्राकृतिक वातावरण में वात पित्तादि त्रिदोषों का संतुलन भी यदि उसी समय बिगड़ने लग जाए तो ऐसे लोगों को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है| ऐसे लोगों को महामारी आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय रोगी होने का भय अधिक होता है |
चिकित्सा मतलब क्या ?