कोरोना :प्राकृतिक है या कृत्रिम (Man Made) ?
जिन वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा कोरोना महामारी के बिषय में विद्वान वैज्ञानिकों के द्वारा लगाया गया कोई भी अनुमान सही न निकल पाया हो उन्हीं वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर बनाई गई वैक्सीन पर विश्वास करने में कठिनाई होते देखी जाती रही है | वस्तुतः किसी भी रोग के लक्षणों के आधार पर लगाए गए अनुमान सही होने पर रोगी को यह विश्वास होता है कि चिकित्सक ने मेरे रोग को पहचान लिया है किंतु चिकित्सक के द्वारा लगाए गए अनुमानों के गलत होने पर उसके द्वारा की गई चिकित्सा से रोगमुक्ति की आशा कैसे की जा सकती है | रोग के बिषय में पता ही न हो फिर भी औषधि वैक्सीन आदि बनाकर तैयार कर दी जाए वास्तव में ये किसी चमत्कार से कम नहीं है | खैर जो भी हो वैक्सीन हर किसी को इसलिए भी लगवा लेनी चाहिए क्योंकि वैक्सीन लगाकर सरकार किसी का भला भले न कर सके किंतु बुरा तो नहीं ही करेगी इतना विश्वास किया जाना चाहिए |
कोरोना के लेकर सरकारें कितनी गंभीर रही हैं यह भी देखा जाना चाहिए !जहाँ एक ओर कोरोना महामारी के बिषय में रिसर्चरों के द्वारा लगाए जा रहे अधिकाँश अनुमान गलत निकलते जा रहे थे इसके बाद भी सरकारें उन्हीं के पीछे भागती रहीं !वहीँ दूसरी और कोरोना के बिषय में मैंने सूर्य चंद्र ग्रहण पूर्वानुमान प्रक्रिया से जो जो पूर्वानुमान लगाए वे प्रायः सही होते देखे जाते रहे इसके बाद भी सरकारें उन्हें स्वीकार करने में हिचकती रही हैं | पीएमओ की मेल पर मैंने कोरोना के बिषय में जो जो अनुमान या पूर्वानुमान भेजे वे बिलकुल सही निकले इसके बाद भी हमसे पूछने की आवश्यकता ही नहीं समझी गई कि आखिर आप कैसे कह रहे हो कि वैक्सीन लगते ही कोरोना संक्रमण बढ़ने का अनुमान है मैंने तो 23 दिसंबर को ही यह पत्र भेज दिया था जो मेल पर अभी भी पड़ा हुआ है |हमने तो बहुत कुछ आगे से आगे लिखा वो सही भी निकला किंतु जिन लोगों को इसे संज्ञान में लेना था वे पूर्वाग्रह ग्रस्त थे इसीलिए उन्होंने हमारे अनुसंधानों को प्रोत्साहित नहीं किया !
विशेष बात यह है कि प्रायः प्रत्येक देश में सरकारों के द्वारा नियुक्त ऐसे अधिकृत रिसर्चर होते हैं जो ऐसी महामारियों की भयावह परिस्थितियों का पूर्वानुमान लगाने समेत महामारी के बिषय में कोई भी जानकारी जुटाने में भले ही बिल्कुल असफल क्यों न रहे हों अर्थात उनके पास महामारी के बिषय में बिलकुल कोई भी जानकारी क्यों न रही हो किंतु ऐसी मुसीबत के समय सरकारें और समाज उनकी ओर बहुत आशा भरी दृष्टि से देख रहा होता है कि ऐसे कठिन समय में बचाव के लिए हमारे रिसर्चर हमारे लिए शायद कोई ऐसी प्रक्रिया खोज लाए हों जिससे हमारा संकट कुछ कम हो सके | ऐसी आस्था भरी दृष्टि से देख रही जनता और सरकारों को निराश न करते हुए रिसर्चरों को ऐसा कुछ तो बोलना ही होता है जिससे भविष्य में यह कहने लायक बने रहें कि महामारी से निपटने में उनका भी बहुत बड़ा योगदान रहा है अन्यथा प्रश्न खड़ा होगा कि महामारी जैसी महामुसीबत में यदि हमारे काम नहीं आ सकते तो जनता के धन पर दशकों से चले आ रहे ऐसे महामारी से रिसर्चों से जनता को क्या लाभ हुआ !इसलिए ऐसी रस्म अदायगी आवश्यक होती है |
ऐसी महा मुसीबत में सरकारें चुप कैसे बैठी रह सकती हैं महामारी जैसे इतने बड़े संकट के समय में अपने प्रयासों से जनता की मदद वे भले न कर पावें किंतु कुछ ऐसी उछलकूद करते हुए उन्हें भी दिखना होता है जिससे जनता को ये लगे कि मुसीबत के समय सरकारें उनके साथ रही हैं |
इसलिए महामारियों से बचाव के लिए रिसर्चर जो कुछ भी बोलते हैं भले वो कोरी कल्पना ही क्यों न हो सरकारें उसे ही ब्रह्मवाक्य मानकर पालन करने में लग जाती हैं और जनता को भी वही मानने के लिए बाध्य करने लगती हैं भले उसके परिणाम कुछ भी क्यों न हों जिसकी जवाबदेही किसी की नहीं होती है| ऐसे समय में बिना किसी किंतु परन्तु के सरकारों की भाषा बोलना मीडिया की भी अपनी मजबूरी होती है |
कुलमिलाकर रिसर्चरों की अपनी मजबूरी होती है सरकारों की अपनी मजबूरी होती है और मीडिया की भी अपनी मजबूरी होती है इसीलिए सभी अपने अपने राग अलाप रहे होते हैं जनता को ऐसा करना चाहिए जनता को वैसा करना चाहिए या जनता को बचाव के लिए ये बंद कर देना चाहिए वो बंद कर देना चाहिए और यदि जनता वैसा नहीं करती तो उसे लापरवाह गैर जिम्मेदार सहयोग न करनी वाली आदि सब कुछ सिद्ध कर दिया जाता है | ये सब देख सुन कर ऐसा लगने लगता है कि जनता सहयोग करती तो महामारी समाप्त हो सकती थी अभिप्राय यह है कि महामारी संक्रमितों की संख्या को लापरवाह जनता ही बढ़ा रही है |
वस्तुतः सरकारों में सम्मिलित लोगों या रिसर्चरों आदि की तरह जनता इतनी स्वतंत्र कहाँ होती है कि वो कभी भी क्वारंटीन होकर सुख सुविधा संपन्न अपने अपने बँगलों में बैठकर महामारियों को सेलिब्रेट करने लगे | जनता को अपने परिवार का ईमानदारी पूर्वक भरण पोषण करने के लिए कमाना भी पड़ता है उनके पास अपने परिवारों की जिम्मेदारियाँ तो होती ही हैं इसके साथ ही अपने कामकाज रोजी रोजगार एवं अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित आश्रितों के भरण पोषण की भी जिम्मेदारी होती है | ईमानदारी पूर्वक दो टाईम की रोटी जुटाना इतना आसान होता है क्या कि वे कभी भी क्वारंटीन हो जाएँ !कभी भी दो गज दूरी मॉस्क जरूरी का पालन करने लगें !लॉकडाउन का पालन करने के लिए कभी भी तैयार हो जाएँ !अपने खून पसीने कमाई खाने का व्रत पालन करने वाले ईमानदार लोग इतने स्वतंत्र कहाँ होते हैं उन्हें तो सैनिकों की तरह अपनी सेवाएँ देने के लिए हमेंशा तैयार रहना होता है |अपनी ईमानदारी पर उन्हें इतना बड़ा भरोसा होता है कि मृत्यु से भयभीत क्वारंटीन में बैठे लोगों को भी सब्जी दूध आदि जरूरत का सामान वही वर्ग उपलब्ध करवाता रहा और उन्हें जुकाम भी नहीं हुआ | श्रमिकों के पलायन से भारत के आम वर्ग का डर छूटा कि जब उन्हें कुछ नहीं हुआ तो हमें भी नहीं होगा अन्यथा ऐसी काल्पनिक रिसर्चों को सुन सुन कर तो आधे लोग डर कर ही मर जाते !
कुल मिलाकर जनता को सबसे बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करना होता है उसे जहाँ एक ओर सरकारों को टैक्स देकर सरकारों में सम्मिलित लोगों एवं उनके रिसर्चरों के परिवारों का बोझ ढोना होता है वहीँ उन रिसर्चरों की तर्कहीन अप्रमाणित ऊंट पटाँग बातों को मानने लिए विवश होना पड़ता है न माने तो उसी जनता का चालान कर दिया जाता है |
आखिर उन रिसर्चरों और उन सरकारों की जवाबदेही क्यों नहीं तय की जाती है कि महामारियों से निपटने के लिए उनकी अग्रिम तैयारियाँ आखिर क्या थीं ?कुछ करना अगर उनके बश का है ही नहीं तो हमारे द्वारा टैक्स रूप में दिया जाने वाला पैसा ऐसे निरर्थक अनुसंधानों के नाम पर क्यों खर्च किया जाता है |
वैक्सीन
लगने के पहले वाला कोरोना प्राकृतिक था और बाद वाला कृत्रिम ! कोरोना को ठीक ठीक समझे बिना कैसे बनाई जा सकती है वैक्सीन आदि कोई भी औषधि ?
कोरोना :प्राकृतिक है या कृत्रिम (Man Made) ?
क्या वैक्सीन लगने के पहले वाला कोरोना प्राकृतिक था और बाद वाला कृत्रिम !
कोरोना को ठीक ठीक समझे बिना वैक्सीन आदि कोई भी औषधि कैसे बनाई जा सकती है ? चिकित्साsee more... http://www.drsnvajpayee.com/index.php/weather/nature/145-man-made
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