कोरोना महामारी और मौसम !मध्यम खंड(मौसम के बिषय में)

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        विज्ञान और अनुसंधान

     कोरोना जैसी महामारियाँ तथा भूकंप सूखा बाढ़ आँधी तूफ़ान वायुप्रदूषण आदि सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओंके अचानक घटित होने से बचाव के लिए समय बिल्कुल नहीं मिल पाता है जिससे जनधन की बड़ी हानि हो जाती है| इसलिए ऐसी सभी प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान लगाना आवश्यक समझा गया !इसलिए अधिकाँश देशों की सरकारों ने ऐसे बिषयों पर अनुसंधान करने के लिए अलग अलग मंत्रालय विभाग आदि बनाए गए | जनता के द्वारा टैक्सरूप में सरकारों को  दिए गए धन से ऐसे अनुसंधानों का संचालन होता है इसके बदले में   ऐसे अनुसंधानों से जनता की यह अपेक्षा होती है कि भविष्य में  आने वाली महामारियों और प्राकृतिक आपदाओं के बारे में अनुसंधान पूर्वक पूर्वानुमान लगा कर हमें आगे से आगे बताया जाए कि भविष्य में कब किस प्रकार की महामारी या प्राकृतिक आपदा आने वाली है | 

   ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों पर खर्च करने के लिए जनता जिस उद्देश्य से धन देती है उस उद्देश्य की पूर्ति करना अनुसंधानकर्ताओं का कर्तव्य हैऔर ऐसा करवाना सरकार का कर्तव्य है क्योंकि टैक्स रूप में जनता से धन लेकर सरकार ही ऐसे अनुसंधानों पर खर्च करती है |इसलिए चिंता की बात यह है कि जो अनुसंधान जनता के लिए किए या करवाए जाते हैं उन अनुसंधानों से जनता को कितना लाभ मिल पाता है यह स्वयं में अनुसंधान का विषय है |       

          कहावत है कि जहाँ जिसका धन लगता है वहाँ उसका मन लगता है | चूँकि जनता का धन ऐसे अनुसंधानों पर खर्च किया जाता है इसलिए जनता को ऐसे अनुसंधानों से आशा भी रहती है | अनुसंधानकर्ताओं की बातों को जनता सुनती भी ध्यान से है और मानती भी है किंतु विगत कुछ विगत कुछ दशकों से देखा जा रहा है कि जितनी भी प्रकार की  प्राकृतिक आपदाएँ घटित हुई हैं या कोरोना महामारी ही आई है इनमें से प्रायःकिसी के भी बिषय में अनुसंधानकर्ताओं के द्वारा ऐसा सही सही स्पष्ट पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका है जिसका उपयोग करके जनता अपना कुछ बचाव कर पाती |वैज्ञानिकों के ऐसे परिणाम विहीन अनुसंधानों ने जनता को बहुत निराश किया है | 

      अनुसंधानकर्ताओं के द्वारा जिन महामारी या प्राकृतिक आपदाओं के बिषय में एक ओर अनुसंधान लगातार चला ही करते हैं वैज्ञानिकों के द्वारा उस पर लगातार दृष्टि भी रखी जा रही होती है तो दूसरी ओर महामारियों या प्राकृतिक आपदाओं के बिषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पा रहा है | इसका कारण क्या है यह बात अनुसंधानकर्ताओं से  पूछी जानी चाहिए कि अनुसंधान करने वालों की लापरवाही है या अनुसंधान करने के लिए जो वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनायी जा रही है वह इस योग्य है ही नहीं जिसके द्वारा भविष्य में होने वाली महामारी या प्राकृतिक आपदाओं के बिषय में पूर्वानुमान लगाना संभव हो हो सकता हो | क्योंकि ऐसी घटनाओं के घटित होने पर जनता अपने इन्हीं अनुसंधानकर्ताओं की ओर बड़ी आशा की दृष्टि से देख रही होती है और अनुसंधानकर्ता लोग जवाबदेही से बचने के लिए इधर उधर की बातें कर रहे होते होते हैं या उन घटनाओं के बिषय में कुछ ऐसी कल्पित कहानियाँ सुना रहे होते हैं जो उस मुसीबत के समय में जनता के किसी काम की ही नहीं होती हैं | 

       इसका सबसे दुखद पहलू तो यह है कि आजकल अनुसंधान कर्ता लोग पूर्वानुमान तो लगा नहीं पा रहे हैं ऐसा न कर पाने का कारण क्या है जनता यह प्रश्न उन अनुसंधान कर्ताओं से पूछे उससे पहले ही ऐसी महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं के लिए जनता को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है |

  महामारी का पूर्वानुमान लगाने के बिषय में -

        22 Dec 2020 को प्रकाशित : पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) द्वारा एक ऐसी विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली (Early Health Warning System) विकसित की जा रही है, जिससे देश में किसी भी रोग के प्रकोप की संभावना का अनुमान लगाया जा सकेगा।गौरतलब है कि भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) भी इस विशिष्ट प्रणाली की विकास अध्ययन और प्रक्रिया में शामिल है।पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) द्वारा विकसित किया जा रहा मॉडल मौसम में आने वाले परिवर्तन और रोग की घटनाओं के बीच संबंध पर आधारित है।ज्ञात हो कि ऐसे कई रोग हैं, जिनमें मौसम की स्थिति अहम भूमिका निभाती है।विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली एक ऐसी निगरानी प्रणाली है, जो त्वरित सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप को संभव बनाने के लिये ऐसे रोगों से संबंधित सूचना एकत्र करती है, जो भविष्य में महामारी का रूप ले सकते हैं।

   कुलमिलाकर रोगों और महारोगों(महामारियों) का पूर्वानुमान लगाने के लिए मौसमसंबंधी घटनाओं का अनुसंधान किया जाएगा | यह मॉडल मौसम में आने वाले परिवर्तन और रोग की घटनाओं के बीच संबंध पर आधारित है।  चूँकि कई रोग ऐसे होते हैं जिनमें मौसम की स्थिति अहम भूमिका निभाती है।इसीलिए इस अनुसंधान प्रक्रिया में भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) भी शामिल किया गया है ऐसा कहा जा रहा है | 

   इसप्रकार की स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली यदि वास्तव में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होती है तो यह प्रणाली व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों ही प्रकार के रोगों या महारोगों(महामारियों) का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम हो सकती है क्योंकि व्यक्तिगत रोगियों के लिए भी पूर्वानुमान प्रक्रिया वरदान सिद्ध हो सकती है क्योंकि महामारी के समय में  भी एक स्थान पर एक ही परिस्थिति में रहने वाले सभी लोग रोगी होते नहीं देखे जाते हैं | जो लोग रोगी होते भी हैं उनमें से कुछ रोगी स्वस्थ हो जाते हैं कुछ अस्वस्थ बने रहते हैं कुछ की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु भी होते देखी जाती है |लोगों के व्यक्तिगत स्वास्थ्य पूर्वानुमान लगाने की आवश्यकता है यदि अभी व्यक्तिगत स्वास्थ्य पूर्वानुमान लगा पाना  संभव नहीं भी है तो यदि स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली भी सफल हो जाती है तो भी महामारियों के बिषय में पूर्वानुमान लगाना संभव हो सकता है यह चिकित्सा क्षेत्र के  लिए बड़ा वरदान सिद्ध हो सकता है | 

     स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली जैसी यह पूर्वानुमान प्रक्रिया से संबंधित मॉडल मौसम में आने वाले परिवर्तन और रोग की घटनाओं के बीच संबंध पर आधारित है।इसलिए इस प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि मौसमसंबंधी प्राकृतिक घटनाओं के वास्तविक स्वभाव की समझ विकसित की जाए तथा प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने के पीछे के आधारभूत वास्तविक कारणों को खोजा जाए एवं सूखा वर्षाबाढ़ आँधी तूफ़ान जैसी प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में सही एवं सटीक पूर्वानुमान लगाने की प्रक्रिया विकसित की जाए | इसके अतिरिक्त केवल अनुसंधान प्रक्रिया में भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) को सम्मिलित करने मात्र से इस लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं होगा जब तक कि वहाँ के मौसम वैज्ञानिक सूखा वर्षाबाढ़ आँधी तूफ़ान जैसी प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में सही एवं सटीक पूर्वानुमान लगाने में सक्षम नहीं होंगे |   

        मौसम का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम वैज्ञानिक कहाँ और कितने हैं ?

   पिछले एक दो दशकों में जितनी भी प्राकृतिक आपदाएँ घटित हुईं उनमें से लगभग किसी के भी बिषय में मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा सही एवं सटीक पूर्वानुमान नहीं बताया जा सका है ऐसी परिस्थिति में ऐसे लोगों को सम्मिलित कर लेने से भी स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली जैसी पूर्वानुमान प्रक्रिया को सफल कैसे बनाया जा सकता है फिर भी प्रयत्न किया जाना चाहिए | कहीं ऐसा न हो जैसा सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं के घटित होने पर जनता का ध्यान भटकाने के लिए एक नए प्रकार के रिसर्च की घोषणा करने का रिवाज सा पड़ा हुआ है |इसके तहत उस प्राकृतिक आपदा से संबंधित रिसर्च को बढ़ावा देने की घोषणा कर दी जाती है | इसके लिए कुछ फंड पास कर लिया जाता है कुछ सुपर कंप्यूटर खरीद लिए जाते हैं कुछ स्थानों पर उपग्रह रडारों आदि की अतिरिक्त व्यवस्था करने की घोषणा कर दी जाती है | भूकंप जैसी बड़ी घटनाओं के बाद कुछ स्थानों पर रिसर्च के नाम पर कुछ गड्ढे खोदे जाने लगते हैं कुछ जगहों पर जमीन के अंदर कुछ मशीने लगाईं जाने लगती हैं | जनता का ध्यान भटकाने के लिए ऐसा बहुत कुछ किया जाता है जिस प्रकार से अभी महामारी आई है तो सरकार के द्वारा एक ऐसी विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली विकसित करने की बात भी कहीं उसी प्रकार के रीति रिवाजों का निर्वाह जनता का ध्यान भटकाने मात्र के लिए ही तो नहीं किया जा रहा है | ऐसा हमें इसलिए भी सोचना पड़ रहा है क्योंकि 1864 में चक्रवात के कारण कलकत्ता में हुई क्षति तथा 1866 एवं 1871 के अकाल के बाद, मौसम संबंधी विश्लेषण और संग्रह कार्य एक ढ़ांचे के अंतर्गत आयोजित करने का निर्णय लिया गया। नतीजतन, 1875 में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुई थी लगभग 145 वर्ष बीत चुके हैं उस लक्ष्य को हासिल करने में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग आजतक आंशिक रूप से भी सफल नहीं हो पाया है |ऐसी परिस्थिति में उससे संबंधित लोगों को सम्मिलित करके  जनता के लिए अत्यंत आवश्यक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली जैसी पूर्वानुमान प्रक्रिया को सफल कैसे बनाया जा सकता है ?

मौसम संबंधी इन घटनाओं के नहीं बताए जा सके पूर्वानुमान !

      2005 में मुंबई में भीषण बाढ़ आई थी !16 जून 2013 को केदारनाथ जी में भयंकर सैलाव आया उसमें हजारों लोग मारे गए !16 जून, 2013 को उत्तराखंड में आई भीषण जलप्रलय की। लाखों श्रद्धालुओं की आस्था के प्रतीक तीर्थस्थल केदारनाथ और इसके आसपास भारी बारिश, बाढ़ और पहाड़ टूटने से सबकुछ तबाह हो गया और हजारों लोग मौत के आगोश में समा गए थे।इनमें से किसी घटना के बिषय में मौसमवैज्ञानिकों के द्वारा कोई पूर्वानुमान नहीं बताया जा सका था |
       नवंबर सन्‌ 2015 में चैन्नई में भीषण बाढ़  आई थी !
सितंबर 2014 में मूसलाधार मानसूनी वर्षा के कारण भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर ने अर्ध शताब्दी की सबसे भयानक बाढ़ आई। यह केवल जम्मू और कश्मीर तक ही सीमित नहीं थी अपितु पाकिस्तान नियंत्रण वाले आज़ाद कश्मीर, गिलगित-बल्तिस्तान व पंजाब प्रान्तों में भी इसका व्यापक असर दिखा। 8
सितंबर 2014 तक, भारत में लगभग 200 लोगों तथा पाकिस्तान में 190 लोगों की मृत्यु हो चुकी है।450 गाँव जल समाधि ले चुके थे ।इनमें से किसी भी बाढ़ के बिषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका था |

      सितंबर 2019 में बिहार में आई भीषण बाढ़ के बिषय में कोई पूर्वानुमान बताने में मौसम विभाग असफल रहा था !मौसम पूर्वानुमान बताने वाले लोग कुछ बता ही नहीं पा  रहे थे और जो बता रहे थे वो गलत होता जा रहा था तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने पत्रकारों से बात करते हुए स्वीकार किया कि मौसम विभाग वाले लोग कुछ बता ही नहीं पा  रहे हैं वर्षा के बिषय में वे सुबह कुछ कहते हैं दोपहर में कुछ दूसरा कहते हैं और शाम होते होते कुछ और कहने लगते हैं | पत्रकारों ने पूछा तो इस बाढ़ के बिषय में आप जनता से क्या कहना चाहेंगे तो नीतीश जी ने कहा कि मेरा मानना है कि हथिया नक्षत्र के कारण यह अधिक बारिश हो रही है |स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे जी ने भी पत्रकारों के पूछने पर यही कहा कि हथिया नक्षत्र के कारण ही  अधिक बारिश हो रही है | 

       28 जून 2015 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी की वाराणसी में सभा होने वाली थी किंतु भीषण वर्षा के कारण उस सभा को रद्द करना पड़ा | इसके बाद मौसम विभाग से पूर्वानुमान पूछकर 16 जुलाई 2015 को वही सभा वर्षा से निपटने की अधिक तैयारियों के साथ निश्चित की गई सरकारी मौसम भविष्य वक्ताओं से भी सलाह ली गई थी उन्होंने कहा था  कि 16 जुलाई को वर्षा की संभावना नहीं है  किंतु मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत हुई और उस दिन इतनी भयंकर बारिश हुई कि प्रधान मंत्री जी की वह सभा भी रद्द हुई !दोनों सभाओं के आयोजन पर खर्च की गई भारी भरकम धनराशि मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत होने के कारण निरर्थक चली गई |

    अप्रैल मई जून आदि के महीनों में गर्मी तो हर वर्ष होती है किंतु  2016 के अप्रैल मई में आधे भारत में गरमी से संबंधित अचानक अलग प्रकार की घटनाएँ घटित होने लगीं ! जमीन के अंदर का जलस्तर तेजी से नीचे जाने लगा बहुत इलाके पीने के पानी के लिए तरसने लगे | पानी की कमी के कारण ही पहली बार पानी भरकर लातूर में एक ट्रेन भेजी गई थी |गर्मी का असर केवल जमीन के अंदर ही नहीं था अपितु वातावरण में इतनी अधिक ज्वलन शीलता विद्यमान थी कि आग लगने की घटनाएँ बहुत अधिक घट रही थीं यह स्थिति उत्तराखंड के जंगलों में तो 2 फरवरी 2016 से ही प्रारंभ हो गई थी क्रमशः धीरे धीरे बढ़ती चली जा रही थी 10 अप्रैल 2016 के बाद ऐसी घटनाओं में बहुत तेजी आ गई थी ! ऐसा होने के पीछे का कारण किसी को समझ में नहीं आ रहा था |इस वर्ष आग लगने की घटनाएँ इतनी अधिक घटित हो रही थीं इस बिषय में संबंधित वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे उन्हें खुद कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था | अंत में आग लगने की घटनाओं से हैरान परेशान होकर 28 अप्रैल 2016 को बिहार सरकार के राज्य आपदा प्रबंधन विभाग ने ग्रामीण इलाकों में सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक खाना न पकाने की सलाह दी थी . इतना ही नहीं अपितु इस बाबत जारी एडवाइजरी में इस दौरान पूजा करने, हवन करने, गेहूँ  का भूसा और डंठल जलाने पर भी पूरी तरह रोक लगा दी गई थी | इस बिषय में जब वैज्ञानिकों से पूछा गया कि इस वर्ष ऐसा क्यों हो रहा है और यदि ऐसा होना ही था तो इसका पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सका ?तो उन्होंने कहा कि इस बिषय में हमें स्वयं ही कुछ नहीं पता है कि इस वर्षा ऐसा क्यों हुआ !ये तो रिसर्च का बिषय है इसलिए ऐसे बिषयों पर अनुसंधान की आवश्यकता है | 

        इसी समय में 13 अप्रैल 2016 से असम आदि पूर्वोत्तरीय प्रदेशों में भीषण वर्षा और बाढ़ का भयावह दृश्य था त्राहि त्राहि मची हुई थी |यह वर्षा और बाढ़ का तांडव 60 दिनों से अधिक समय तक लगातार चलता रहा था |

    सन 2016 के अप्रैल मई में घटित हुई परस्पर विरोधी इन दोनों घटनाओं के बिषय में वैज्ञानिकों से पत्रकारों ने पूछा कि इन दोनों घटनाओं के बिषय में पहले से कोई पूर्वानुमान क्यों नहीं बताया जा सका था | इस पर वैज्ञानिकों ने कहा कि असम आदि पूर्वोत्तरीय प्रदेशों में हो रही भीषण वर्षा और बाढ़ का कारण जलवायु परिवर्तन है तथा बिहार उत्तर प्रदेश राजस्थान मध्यप्रदेश महाराष्ट्र आदि में अधिक गर्मी एवं आग लगने की अधिक घटनाओं का कारण ग्लोबल वार्मिंग है | जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता | 

     इन्हीं बिषयों में काफी पहले मेरे द्वारा की हुई भविष्यवाणियाँ सही होती जा रही थीं उसके प्रमाण आज भी इंटरनेट पर विद्यमान हैं इसी बिषय में चर्चा करने के लिए मैं मौसम विज्ञान विभाग में गया था वहाँ एक मौसम वैज्ञानिक महोदय से मिलाया गया वहाँ उनके पास एक पत्रकार महोदय बैठे इन्हीं बिषयों पर चर्चा कर रहे थे उसी क्रम में पत्रकार महोदय ने उन वैज्ञानिक महोदय से निजी चर्चा में पूछा कि यह कैसे पता लगे कि मौसम संबंधी कौन सी घटना जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण घटित हो रही है और कौन सी घटना अपने आप से घटित हो रही है  जिसके बिषय में पूर्वानुमान के सही होने की आशा की जाए !इस पर हँसते हुए उन्होंने कहा कि सीधी सी बात है हमारे विभाग के द्वारा लगाया गया जो पूर्वानुमान सही निकले उसे मौसम संबंधी सामान्य घटना मान लीजिए और हमारे विभाग के द्वारा लगाया गया जो पूर्वानुमान सही न निकले उसे जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण घटित होने वाली घटना मान लेना चाहिए | दोनों लोग हँसने लगे चर्चा समाप्त हुई और मैं भी चला आया !

     2018 के अप्रैल मई में हिंसक आँधी तूफानों की घटनाएँ बार बार घटित हो रही थीं 2 मई की रात्रि में आए तूफ़ान से काफी जन धन हानि हुई थी | ऐसे तूफानों के बिषय में किसी को कुछ पता ही नहीं था मौसम वैज्ञानिकों को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि ऐसे बिषयों में क्या बोला जाए !इनके बिषय में कभी कोई पूर्वानुमान बताया ही नहीं जा पा रहा था वैज्ञानिक लोगों ने भविष्यवाणियाँ करने के लिए कुछ तीर तुक्के लगाए भी किंतु वे पूरी तरह से गलत निकलते चले गए !यहाँ तक कि 7 और 8 मई 2018 को उन्होंने दिल्ली और उसके आस पास भीषण तूफ़ान की भविष्यवाणी बड़े जोर शोर से कर दी यह सुन कर कुछ प्रदेशों की भयभीत सरकारों ने अपने अपने प्रदेशों में स्कूल कालेज बंद कर दिए किंतु उन दो दिनों में हवा का एक झोंका भी नहीं आया !बताया जाता है कि इस बिषय को बाद में पीएमओ ने संज्ञान भी लिया था | इसी घटना के बिषय में एक निजी टीवी चैनल के साथ परिचर्चा में मौसम विज्ञान विभाग के निदेशक महोदय डॉ.के जे रमेश जी से एक पत्रकार महोदय ने प्रश्न कर दिया कि क्या कारण है कि आपका विभाग इतने भयंकर आँधी तूफानों के बिषय में कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सका और जो लगाए भी गए वे गलत निकलते चले गए !इस पर डॉ.के जे रमेश जी ने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ऐसे तूफ़ान आ रहे हैं इसीलिए इनके बिषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पा रहा है और अचानक आ जा रहे हैं आँधी तूफ़ान पता ही नहीं लग पा रहा है | अगले दिन कई अखवारों में हेडिंग छपी थी -"चुपके चुपके से आते हैं चक्रवात !"

       केरल में जब भीषण बाढ़ आई तो उसमें भी मौसम विज्ञान विभाग की ऐसी ही ढुलमुल भूमिका रही !3 अगस्त 2018 को मौसम विज्ञान विभाग की ओर से जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई उसमें भविष्यवाणी की गई थी कि अगस्त और सितंबर महीने में दक्षिण भारत में सामान्य वर्षा की संभावना है !जबकि 5 अगस्त से ही भीषण बारिश प्रारंभ हो गई थी जिससे केरल कर्नाटक आदि दक्षिण भारत में त्राहि त्राहि माही हुई थी | जिसके बिषय में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री जी ने स्वीकार भी किया कि यदि मौसम विभाग की भविष्यवाणी झूठी न निकली होती तो बाढ़ से जनता इतनी अधिक पीड़ित न हुई होती | इसके बिषय में मौसम निदेशक डॉ.के. जे. रमेश से एक टीवी चैनल ने पूछा तो उन्होंने कहा कि केरल की बारिश अप्रत्याशित थी इसलिए इसके बिषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका था | इसका कारण जलवायु परिवर्तन है जबकि दक्षिण भारत में 2018 के अगस्त महीने में हुई इसी भीषण वर्षा के बिषय में 2018 के अगस्त महीने का मौसम पूर्वानुमान मैंने मौसम विभाग के निदेशक डॉ.के जे रमेश जी की मेल पर 29 जुलाई 2018 को ही भेज दिया था !उसमें लिखा है कि अगस्त की एक से ग्यारह तारीख के बीच इतनी भीषण वर्षा दक्षिण भारत में होगी कि बीते कुछ दशकों का रिकार्ड टूटेगा !वर्षा का स्वरूप इतना अधिक डरावना होगा !"यह हमारी मेल पर अभी भी पड़ा है जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया था कि मेरा वर्षा पूर्वानुमान सही निकला है |
     सन 2019 \2020 की सर्दियों के बिषय में  मौसम विभाग की पुणे इकाई ने सामान्य से कम सर्दी का अनुमान व्यक्त किया था लेकिन सर्दी ने तो सौ साल के रिकार्ड तोड़ दिये। इस पर पत्रकारों ने मौसम विभाग की उत्तर क्षेत्रीय पूर्वानुमान इकाई के प्रमुख डॉ. कुलदीप श्रीवास्तव से पूछा कि सर्दी की दस्तक से पहले मौसम विभाग ने कहा था कि इस साल सर्दी सामान्य से कम रहेगी,लेकिन सर्दी ने तो सौ साल के रिकार्ड तोड़ दिये। पहले मानसून और अब सर्दी का पूर्वानुमान भी गलत साबित हुआ क्यों ? 

     इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि कड़ाके की ठंड मौसम की चरम गतिविधि का नतीजा है  जिसका सटीक पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं है |भारत जैसे ऊष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्र में मौसम के इस तरह के अनपेक्षित और अप्रत्याशित रुझान का सटीक पूर्वानुमान लगाने की तकनीक दुनिया में कहीं भी नहीं है।सर्दी ही नहीं, अतिवृष्टि और भीषण गर्मी जैसी मौसम की चरम गतिविधियों का दीर्घकालिक अनुमान संभव ही नहीं है।मौसम की चरम गतिविधियों के दौरान, मौसम का मिजाज तेजी से बदलने की प्रवृत्ति प्रभावी होने के कारण अल्पकालिक अनुमान भी मुश्किल से ही सटीक साबित होता है| मौसम के तेजी से बदलते मिजाज को देखते हुये चरम गतिविधियों का दौर भविष्य में और अधिक तेजी से देखने को मिल सकता है। इनकी आवृत्ति में भी तेजी देखी जा सकती है। ऐसे में बारिश के अनुकूल परिस्थिति बनने पर मूसलाधार बारिश होना या गर्मी का वातावरण तैयार होने पर अचानक तापमान में उछाल या गिरावट जैसी घटनायें भविष्य में बढ़ सकती हैं। मौसम संबंधी शोध और अनुभव से स्पष्ट है कि इस तरह की घटनाओं का समय रहते पूर्वानुमान लगाना भी मुश्किल है। ऐसे में पूर्वानुमान के गलत साबित होने की संभावना भी रहेगी। 

      इसके बाद एक बार फिर गलत हुई मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी !2020-21 में  लानीना का प्रभाव बताकर शीतऋतु में अधिक सर्दी होने की भविष्यवाणी की गई थी किंतु अबकी  बार तो जनवरी से ही तापमान बढ़ने लग गया था ऐसा होने के पीछे का कारण जब उन भविष्यवक्ताओं से पूछा गया तब उन्होंने वही जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग को कारण बता दिया था | 

     भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना हुए लगभग 145 वर्ष बीत चुके हैं अभी तक सही एवं सटीक निकलने वाली मानसून आने और जाने की तारीखें नहीं तय की जा सकी हैं जो तय की भी गई थीं वे अधिकाँश वर्षों में  हो जाती रही हैं |इसीलिए मानसून आने और जाने के बिषय में सही पूर्वानुमान लगाने की वास्तविक वैज्ञानिक प्रक्रिया खोजने की बजाए अब मानसून आने और जाने की तारीखों में ही बदलाव किया जा रहा है | इस बदलाव का कोई मजबूत वैज्ञानिक आधार नहीं है इसलिए ये तारीखें भी गलत होंगी ही कुछ समय तक ये तारीखें भी गलत निकलती रहेंगी तब तारीखें ही फिर बदल दी जाएँगी | मौसम विज्ञान के क्षेत्र में यह या तो अनुसंधान की क्षमता का अभाव है या फिर विज्ञान भावना के साथ यह खुला खिलवाड़ है | 

      वर्षा ऋतु के चार महीनों में से किस महीने में वर्षा कैसी होगी कृषि कार्यों के लिए यह बहुत उपयोगी एवं आवश्यक होता है किंतु इसी उद्देश्य से की गई भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना को लगभग 145 वर्ष बीत चुके हैं किंतु बीते 145 वर्षों में सही सही दीर्घावधि मौसम पूर्वानुमान किसानों को उपलब्ध नहीं करवाया जा सका है | ये चिंता की बात होनी चाहिए | किसान मार्च अप्रैल के महीने में एक फसल पूरी हो जाने के बाद जुलाई अगस्त में बोई जाने वाली दूसरी फसल के बिषय में योजना बनाते हैं | वर्षाऋतु में जिसप्रकार की वर्षा होने की संभावना होती है उसी के अनुसार फसलों का चयन किया जाता है उसी के हिसाब से ऊँचे नीचे आदि खेतों के हिसाब से इस वर्ष में किस प्रकार की फसल बोना हितकर होगा |इसके साथ ही वर्षाऋतु में जिसप्रकार की वर्षा होने की संभावना होती है उसी के अनुसार ही वे एक वर्ष के लिए आनाज भूसा आदि का संरक्षण करते हैं बाक़ी मार्च अप्रैल के महीने में ही फसल पूरी हो जाने पर खर्चे के लिए बेच लिया करते हैं | कृषिक्षेत्र के अतिरिक्त सैन्य आदि अन्य क्षेत्रों में भी दीर्घावधि मौसम पूर्वानुमानों की आवश्यकता होती है | 

          अल्पावधि मौसम पूर्वानुमान की यह स्थिति है कि इसमें वैज्ञानिक अनुसंधान भावना का कोई विशेष योगदान नहीं होता है इसमें तो रडारों एवं उपग्रहों के सहयोग सेजो घटना एक जगह घटित होते देख ली जाती है उसकी गति और दिशा के हिसाब से अंदाजा लगा लिया जाता है कि ये इतने दिन में उस देश प्रदेश या जिले आदि में पहुँच सकती है | बीच में हवाओं का रुख बदल जाने से लगाया हुआ अंदाजा गलत हो जाता है | वैसे भी जो बादल जिधर जिधर जाते हैं सभी जगह तो नहीं बरसते हैं कुछ जगहों पर बरसकर वापस लौट जाते हैं | तूफानों चक्रवातों में ऐसे कैमरों से मिली तस्बीरें कई बार काम आ जाती हैं जिनसे कुछ तीर तुक्के सही फिट भी हो जाते हैं इस कैमरा जुगाड़ से कई बार निकट भविष्य में होने वाली जनधन की हानि से बचाव हो जाता है ,क्योंकि इनमें बादलों की तरह बिना बरसे लौटने की गुंजाइस बहुत कम रहती है ये जहाँ पहुँचते हैं वहाँ नुक्सान करते ही हैं | 

     हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह मात्र एक जुगाड़ है इसमें कोई विज्ञान नहीं है जो महामारियों से संबंधित अनुसंधानों में किसी सहयोग लायक हो | जुगाड़ तो केवल जुगाड़ ही होता है | किसी गाँव के एक छोर पर एक जंगल था उस जंगल से निकलकर हाथियों का झुण्ड कई बार गाँव में घुस आता था और काफी नुक्सान कर जाया करता था इससे परेशान होकर गाँव वालों ने कैमरे लगाने का जुगाड़ सोचा गाँव के जिस ओर जंगल था उस ओर कैमरे लगा दिए फिर जब हाथियों का झुण्ड गाँव की ओर आता दिखाई पड़ता था तो गाँव वाले इकट्ठे होकर हाथियों को जंगल में ही खदेड़ आते थे जिससे गाँव वालों का हाथियों से होने वाले नुक्सान से बचाव हो जाता था यह सह है किंतु यह एक जुगाड़ मात्र है इसे हाथीविज्ञान नहीं कहा जा सकता है | 

     वर्षा संबंधी अल्पावधि भविष्यवाणियाँ भी गलत होती हैं ऐसा होने पर नुक्सान भी होता है | कई बार कहीं वर्षा होना जब शुरू हो जाता है उसके साथ मौसम भविष्य वक्ता लोग भी शुरू हो जाते हैं जैसे जैसे वर्षा होती चली जाती है वैसे वैसे  वे भी दो दो दिन बढ़ाते चले जाते हैं अभी दो दिन और बरसेगा लोग समझते हैं दो दिन बाद बंद हो जाएगा फिर कह दिया जाता है अभी तीन दिन और बरसेगा लोग सोचते हैं कि चलो तीन दिन और बरसेगा काम चला लेते हैं तो घर में पानी भर जाने के बाद भी लोग छत पर काम चलाने के लिए रह जाते हैं उसके बाद भी पानी बरसते रहता है तो ये कहते हैं तीन दिन और बरसेगा तब तक पानी छत के करीब आ चुका होता है ऐसी परिस्थिति में तब लोग घर छोड़कर कहीं जाने लायक भी नहीं रह जाते हैं और न छत पर ही रहने की परिस्थिति रह पाती है ! लोगों का सामान भी सड़ जाता है और खुद भी हादसे के शिकार होते हैं ! ऐसे तीरतुक्कों को मौसम पूर्वानुमान कैसे कहा जा सकता है और इसमें विज्ञान कहाँ होता  है ! 2015 के नवंबर महीने में मद्रास में हुई भीषण बारिश और बाढ़ का कारण कुछ ऐसा ही होना था | प्रशांत महासागर से चली बादलों की श्रंखला जिस और जिस गति से जाती है उस गति से उस दिशा के हिसाब से अनुमान लगा लिया जाता है किंतु तब तक जितने बादल दिखाई पड़ रहे होते हैं उतने के बिषय में ही अंदाजा लगाया जा सकता है तीन दिन बाद भी यदि बादलों की श्रृंखला टूटती नहीं है तो तीन दिन और बरसेगा उसके बाद भी बादल दिखाई पड़ते रहें तो तीन दिन और बरसेगा ऐसे अंदाजे लगाए जाते रहते हैं | ऐसे अनुमान यदि मौसम विज्ञान के आधार पर लगाए जा रहे होते तो बिना बादलों को देखे ही पहले से पता होता कि बादल कितने दिनों तक बरस सकते हैं | ऐसा विज्ञान महामारियों से संबंधित अनुसंधानों में मदद कर सकता है किंतु ऐसा करने की योग्यता रखने वाले मौसम वैज्ञानिक हैं कहाँ जिन की योग्यता पर भरोसा करके महामारी से संबंधित अनुसंधान प्रारंभ किए जा सकते हैं |

    जलवायु परिवर्तन और मौसम !

      वैज्ञानिकों के द्वारा स्थापित मान्यता के अनुशार जलवायुपरिवर्तन मौसम को प्रभावित करता है और मौसम स्वास्थ्य को प्रभावित करता है मौसम संबंधी बड़े उत्पात महामारियों की उत्पत्ति के कारण बनते हैं |इसलिए महामारियों से संबंधित किसी भी अनुसंधान के लिए मौसम संबंधी घटनाओं का अध्ययन अनुसंधान पूर्वक पूर्वानुमान लगाया  जाना बहुत आवश्यक है | चूँकि मौसम संबंधी घटनाओं पर जलवायुपरिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है इसलिए जलवायु परिवर्तन के मौसम पर पड़ने वाले प्रभाव के बिषय में सही सही अनुसंधान किए बिना मौसम से प्रभावित होने वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सही एवं सटीक अध्ययन कैसे किया जा सकता है और महामारियों के बिषय में पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है |

      विशेष बात यह है मौसम का जो सहज क्रम बना हुआ है जिसमें सर्दी के समय में उचित मात्रा में सर्दी होती है और गर्मी की ऋतु में उचित मात्रा में गरमी होती है तथा वर्षा के समय उचित मात्रा में वर्षा होती है | जब तक ऐसा क्रम अपने सहज प्रवाह में चलता रहता है तब तक न तो मौसम पूर्वानुमान लगाने की विशेष आवश्यकता होती है और न ही ऐसे समय में महामारियों के ही पैदा होने की दूर दूर तक कोई संभावना रहती है |

     सर्दी की ऋतु  सर्दी बहुत कम या बहुत अधिक होने लगे या उसकी समयावधि बहुत अधिक घट या बढ़ जाए !ऐसा ही वर्षाऋतु में वर्षा को लेकर हो और गर्मी के समय में ऐसा ही गर्मी के संबंध में असंतुलन  देखा जाए तो वैज्ञानिक भाषा में ऐसी घटनाओं को जलवायु परिवर्तन के नाम से जाना जाता है | उन्हीं के द्वारा कहा जाता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण घटित हुई  घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है और यदि सभी घटनाएँ संतुलित मात्रा में ही घटित होती रहें तो पूर्वानुमानों की आवश्यकता ही क्या है वो तो सबको वैसे ही पता है |

      अनंतकाल से चला आ रहा मौसम का यह क्रम जब टूटता है और वह जिस सीमा तक टूटता है उसी स्तर के प्राकृतिक रोग प्रारंभ होने की संभावना होती है और जब बड़े प्राकृतिक विप्लव होते हैं तब महामारियों का निर्माण होने की संभावना होती है | 

     मौसम वैज्ञानिकों की समस्या यह है कि मौसम का क्रम टूटने या प्राकृतिक विप्लवों को वो जलवायु परिवर्तन मान चुके हैं और जलवायु परिवर्तन का पूर्वानुमान लगाया नहीं जा सकता जबकि जिसे वे जलवायु परिवर्तन के कारण घटित घटनाएँ मानते हैं स्वास्थ्य पर उस प्रकार की घटनाओं का ही विपरीत प्रभाव पड़ता है | यदि उनका पूर्वानुमान वे लगा ही नहीं सकेंगे तो पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा कल्पित विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली (Early Health Warning System) संबंधी अनुसंधान प्रक्रिया में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग को सम्मिलित किए जाने का उद्देश्य क्या होगा और उस प्रकार के अध्ययनों में उनकी सार्थक भूमिका किस प्रकार की होगी |

     सामान्यतौर पर प्रत्येक वर्ष के अप्रैल मई जून तक अधिक गरमी पड़ती है इसी प्रकार से नवंबर दिसंबर जनवरी आदि में अधिक सर्दी बढ़ती है|प्रकृति के इसी समय चक्र से समाज सुपरिचित है यही हमेंशा से चला आ रहा है इसी समय क्रम को स्थायी मानकर इसी के आधार पर चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि सन 2020 के अप्रैल मई जून आदि में अधिक गरमी  पड़ेगी और  अधिक तापमान में वायरस कमजोर पड़ जाता है इसलिए सन 2020 के अप्रैल मई जून आदि में कोरोना संक्रमण समाप्त जाएगा  किंतु ऐसा हुआ नहीं मई तक तो वर्षा और बर्फबारी ही होते देखी सुनी जाती रही इसलिए तापमान उतना अधिक बढ़ा ही नहीं जितने बढ़ने पर कोरोना संक्रमण  की संभावना थी | 

     इसी प्रकार से नवंबर दिसंबर जनवरी आदि में अधिक सर्दी पड़ती है|समय जनित मौसम के इसी स्वभाव से समाज सुपरिचित भी है और यही हमेंशा से चला भी आ रहा है इसे ही सच मानकर वैज्ञानिकों ने कह दिया कि 2020 की सर्दी अर्थात नवंबर दिसंबर आदि में कोरोना संक्रमण काफी अधिक बढ़ जाएगा !दिल्ली  के बिषय में अनुमान लगाया गया कि 15 हजार बिस्तरों की आवश्यकता पड़ सकती है |उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि इस वर्ष की सर्दियों में जनवरी फरवरी से ही तापमान बढ़ना प्रारंभ हो जाएगा जिससे सर्दियों के समय में भी सर्दी कम पड़ेगी | 

      ऐसी परिस्थिति में चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा गरमी की ऋतु में कोरोना संक्रमण घटने एवं सर्दी के समय में कोरोना संक्रमण बढ़ने के बिषय में लगाया गया पूर्वानुमान संपूर्ण रूप से गलत निकल गया | वस्तुतः चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए इस पूर्वानुमान का आधार तो मौसम था मौसम का पूर्वानुमान उन्हें पता नहीं था इसलिए चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए  पूर्वानुमान के गलत निकल जाने का एक कारण यह भी हो सकता है | यदि मौसम संबंधी अनुसंधानों का सही सहयोग मिला होता तो महामारी को समझने में और अधिक सुविधा हो सकती थी | 

    वर्तमान मौसम वैज्ञानिक इस  परिस्थिति में चिकित्सा वैज्ञानिकों का सहयोग करने मेंकितने सक्षम थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2019\20 की सर्दियों में कम सर्दी होने का पूर्वानुमान लगाया था जबकि 2020\21की सर्दियों में अधिक सर्दी होने का पूर्वानुमान लगाया था ,किंतु उनके द्वारा लगाए गए ये दोनों पूर्वानुमान ही न केवल गलत निकल गए अपितु अनुमानों के विरुद्ध घटनाएँ घटित होते देखी जाती रहीं | जिस वर्ष सर्दी कम होने का पूर्वानुमान लगाया गया उस वर्ष सर्दी इतनी अधिक हुई कि दशकों के रिकार्ड टूटे और जिस वर्ष सर्दी अधिक होने का पूर्वानुमान लगाया उस वर्ष आधी सर्दी से ही तापमान बढ़ने लग गया ऐसा दशकों बाद हुआ है यह उन्हीं लोगों ने बताया है जिन्होंने अधिक सर्दी होने की भविष्यवाणी की थी | 

      ऐसी परिस्थिति में भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा जो विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली (Early Health Warning System) विकसित की जा रही है, जिससे देश में किसी भी रोग के प्रकोप की संभावना का अनुमान लगाया जा सकेगा।पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय का मानना है कि ऐसे कई रोग हैं जिनमें मौसम की स्थिति अहम भूमिका निभाती है।इसलिए उनके द्वारा विकसित किया जा रहा यह मॉडल मौसम में आने वाले परिवर्तन और रोग की घटनाओं के बीच संबंधों पर आधारित है।यहाँ तक तो ठीक है यह सही दिशा में सोचा गया एक अच्छा कदम है यदि ईमानदारी पूर्वक एक लक्ष्य को निर्धारित करके किया जाए !आवश्यक यह  भी है कि भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) भी इस विशिष्ट प्रणाली की विकास अध्ययन और प्रक्रिया में शामिल किया गया है।यह भी उचित दिशा में अच्छी नियत से उठाया कदम माना जा सकता है किंतु प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली जैसे बड़े संकल्प को पूरा करने के लिए इस प्रक्रिया में भारतमौसमविज्ञानविभाग को केवल सम्मिलित कर लेना ही पर्याप्त नहीं होगा अपितु उनमें से उन लोगों को ही सम्मिलित करना उचित होगा जिन मौसम वैज्ञानिकों को मौसम के बिषय में कुछ समझ भी हो |जिनके द्वारा पहले की गई मौसम संबंधी कुछ भविष्यवाणियाँ सही एवं सटीक घटित हो चुकी हों जिससे उनकी मौसम के स्वभाव को समझने की क्षमता प्रमाणित भी हो चुकी हो क्योंकि स्वास्थ्य संबंधी अध्ययनों के लिए मौसमसंबंधी प्रकृति के स्वभाव को समझने वाले सक्षम मौसमवैज्ञानिक ही कुछ योगदान दे सकते हैं |ऐसे अध्ययनों अनुसंधानों में उपग्रहों रडारों से की जाने वाली आँधी तूफानों एवं बादलों की जासूसी वाला विज्ञान उपयोगी नहीं होगा और न ही सुपरकंप्यूटरों से प्राप्त गणनाएँ ही उपयोगी रहेंगी !इसके अतिरिक्त यदि मौसम के स्वभाव को समझने के बिषय में मौसमवैज्ञानिकों के पास यदि कोई वैज्ञानिक पद्धति भी हो तभी उनके योगदान से ऐसे अनुसंधानों को आगे बढ़ाने में कुछ मदद मिल सकती है | 

 भूकंप वैज्ञानिक :ऐसे अनुसंधानों में भूकंप वैज्ञानिकों की भी सेवाएँ ली जानी चाहिए क्योंकि 2019 और 2020 में भूकंप भी बहुत संख्या में आए हैं सामान्य तौर पर ऐसा हर वर्ष होते तो नहीं देखा जाता है | इस वर्ष इतने अधिक भूकंप आने का कोई संबंध भूकंप जैसी महामारी से तो नहीं है | आखिर प्रकृति में किस प्रकार के बदलाव आने से भूकंप बनते हैं और किस प्रकार के बदलाव आने से महामारियाँ बनती हैं क्या इन दोनों का आपस में कोई संबंध है उसका भी पता लगाया जाना चाहिए !

 वायु प्रदूषण : 6 नवंबर 2020  को सरकार के सीनियर अधिकारियों ने संसद की एक समिति को जानकारी दी थी कि वायु प्रदूषण के कारण कोरोना वायरस का संक्रमण पहले के मुकाबले ज्यादा तेज गति से फैल सकता है |इसके अतिरिक्त कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने भी महामारी से संबंधित संक्रमण बढ़ने घटने में वायु प्रदूषण के बढ़ते घटते स्तर को भी कारण माना है | उनके बिचार से महामारी को नियंत्रित करने के लिए वायु प्रदूषण के स्तर को कम करने के प्रयास करने होंगे !ऐसे प्रयास करने के लिए सबसे पहले आवश्यकता इस बात की है कि पहले वे निश्चित कारण खोजे जाएँ जो वायु प्रदूषण को बढ़ने में सहायक होते हैं |

  2 नवंबर 2015  को प्रकाशित :दीपावली में पटाखों से निकलने वाले धुएँ से वायु प्रदूषण बढ़ता है 

  25अक्टूबर 2017 को प्रकाशित :तापमान अधिक होने से हवा में घुल रही गैस और प्रदूषित तेज हवा में तैरने वाले धूल कणों  से  वायु प्रदूषण बढ़ता है !

13 नवंबर 2017 को प्रकाशित :केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अपर निदेशक दीपाकर साहा का मानना है कि दिल्ली की भौगोलिक स्थिति के कारण वायु प्रदूषण बढ़ता है । उन्होंने पराली जलने को भी वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार मानने से इन्कार किया है।

 17 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित :दशहरे में रावण के पुतले जलाने से वायु प्रदूषण बढ़ता है !इसलिए इस पर रोक के लिए दिल्ली हाईकोर्ट ने दोनों सरकारों से रिपोर्ट तैयार करने को कहा था ! 

28 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित :पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की वायु गुणवत्ता निगरानी प्रणाली 'सफर' ने कहा कि हवा की गति धीमी होने और कम तापमान के कारण प्रदूषण कारक तत्व एकत्रित हो जाते हैं | 

30 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित :चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन (सीआरएफ) और पुणे यूनिवर्सिटी ने दो साल पहले कुछ तथ्य सामने रखे थे. उसी में ये बात सामने आई थी कि काले रंग की गोली जैसी टिकिया यानी सांप पटाखा (स्नेक टैबलेट) सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाती है | 

  3 नवंबर 2020को प्रकाशित :पराली जलाने के कारण वायु प्रदूषण बढ़ता है| 

इसी प्रकार से वाहनों एवं उद्योगों से निकलने वाले धुएँ से,निर्माण कार्यों से निकलने वाली धूल से ,ईंट भट्ठों से निकलने वाले धुएँ से वायु प्रदूषण बढ़ता है !

  15  अक्टूबर 2018 को प्रकाशित :  चीन के वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ते प्रदूषण के लिए हेयर स्प्रे ,परफ्यूम,एयर रिफ्रेशर में पाए जाने वाले वाष्पशील कार्वनिक यौगिकों से बढ़ता है प्रदूषण !

 17  जनवरी 2019  को प्रकाशित :एनजीटी ने हुक्का की घरेलू वायु प्रदूषण की दृष्टि से जाँच करने को सरकार से कहा है
 
4 अगस्त 2018   को प्रकाशित :मध्य पूर्व की आँधी से बढ़ता है वायु प्रदूषण !

25 दिसंबर  2015 को प्रकाशित :एक रिसर्च के हवाले से कहा गया है कि वायु प्रदूषण बढ़ने का वास्तविक कारण किसी को नहीं पता |



 और वायुप्रदूषण का स्तर बढ़ने और घटने का कारण वैज्ञानिकों के द्वारा मनुष्य के अपने क्रिया कलापों को माना गया है | ऐसी परिस्थिति में मनुष्यकृत आचार व्यवहार का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है इसलिए वायु प्रदूषण के बढ़ते घटते स्तर के साथ साथ महामारी से संबंधित संक्रमण बढ़ने घटने का भी पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है | 

 

   

के कारण महामारियों  भूकंप अतिवर्षा बाढ़ सूखा हिंसक तूफान जितनी भी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ घटित होती हैं उन सबके लिए जनता को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है किसी में प्रत्यक्ष तौर से तो किसी में परोक्ष तौर से !जनता पर्यावरण के विरुद्ध आचरण करती है इसलिए ग्लोबलवार्मिंग बढ़ती है जलवायुपरिवर्तन होता है और जलवायुपरिवर्तन के कारण भूकंप अतिवर्षा बाढ़ सूखा हिंसक तूफान जैसी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं का घटित होना बताया जाता है |कुल मिलाकर वैज्ञानिकों ने जलवायुपरिवर्तन को मनुष्यकृत माना है |   

    2018 के अक्टूबर महीने में जलवायु परिवर्तन का मूल्यांकन करने वाली प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संस्था 'इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) द्वारा  जारी एक रिपोर्टने कहा - "जलवायु परिवर्तन को तभी रोका जा सकता है जब दुनिया बड़ी और महंगी हो जाए, बदलाव आए।इसका मतलब है कि 2010 के 2030 तक CO2 के वैश्विक उत्सर्जन को 45% तक कम करना, और भूमि ऊर्जा फसलों के लिए कोयले के उपयोग को लगभग शून्य और सात मिलियन वर्ग किमी (2.7 मिलियन वर्ग मील) तक कम करना है।"

    ऐसी परिस्थिति में पर्यावरण की दृष्टि से जनता कब कैसा आचरण करेगी और उस  जनता के आचरण का पर्यावरण पर कब कैसा प्रभाव पड़ेगा !चूँकि इसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है इसलिए इस बात का भी पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है कि ग्लोबलवार्मिंग या जलवायुपरिवर्तन का कब किस अनुपात में प्रभाव पड़ेगा !मौसम वैज्ञानिकों की मान्यता है कि ग्लोबलवार्मिंग या जलवायुपरिवर्तन जैसी घटनाएँ मौसम को प्रभावित करती हैं | इसीप्रकार से ही वैज्ञानिकों का मानना है कि महामारी के पैदा होने में एवं महामारी से संबंधित संक्रमण कम और अधिक होने में मौसम की बड़ी भूमिका है किंतु यदि मौसमसंबंधी घटनाओं का ही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है तो उसके बिगड़ने से होने वाली महामारियों एवं उनसे संबंधित संक्रमण के बढ़ने घटने का भी पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है | 

महामारियाँ : 

 इस वर्ष का मौसम :


    इसीप्रकार से कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि महामारी से संबंधित संक्रमण बढ़ने घटने में तापमान के बढ़ने घटने की बड़ी भूमिका है और जलवायुपरिवर्तन एवं ग्लोबलवार्मिंग जैसी घटनाएँ मनुष्यकृत मान ली गई हैं दुनिया के प्रमुख वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव-प्रेरित है और चेतावनी देता है कि मानव गतिविधि द्वारा तापमान में प्राकृतिक उतार-चढ़ाव बढ़ रहा है।इसलिए तापमान का बढ़ना घटना भी मनुष्यकृत मान लिया गया है |   

11 जून, 2020 को 'फिजिक्स ऑफ फ्लूड्स' जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में यह आकलन किया गया शुष्क मौसम की तुलना में आर्द्र मौसम में वायरस के सक्रिय रहने की संभावना मौटे तौर पर पांच गुणा बढ़ जाती है |

10 अक्टूबर 2020 को नीति आयोग के सदस्य डॉ. वीके पॉल ने कहा कि तापमान घटने और सर्दियों के बढ़ने पर सर्दियों में कोरोना से हालात बिगड़ सकते हैं। दिल्ली में औसतन रोजाना 15 हजार मरीज आ सकते हैं। उन्होंने दिल्ली सरकार को इस स्तर पर तैयारी करने की सलाह दी थी ।

 

 


 

 

 

        


महामारी 1सी।...  

 

भी न बताना पड़े इसके लिए महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं का मुख जनता की ओर ही मोड़ देने लगे हैं | 

      जनता कुछ ऐसा करती है जिससे जलवायु परिवर्तन होता है और जलवायु परिवर्तन के कारण महामारियाँ प्राकृतिक आपदाएँ आदि घटित होती हैं इसलिए इनका पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पा रहा है | .....

 इसके लिए 

    

नीली  पैंट वाली बात 

भूकंप सूखा बाढ़ आँधी तूफ़ान वायुप्रदूषण आदि सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओंके

 

पर खर्च होने वाला धन  जाता है जिनमें  होने वाले अपने अपने 

 

घटित होती हैं प्राकृतिक आपदाएँ 

पिछले कुछ दशकों से   किसी भी प्राकृतिक आपदा के घटित होने पर उसका वास्तविक कारण वैज्ञानिक अनुसंधानों से  खोजे बिना ही उसके लिए जनता को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है |जनता वैसा न करती तो ऐसा न होता |वैसा करना जनता की अपनी रोजी रोजगार आदि मजबूरी होती है इसलिए उसे वैसा करने के लिए विवश होना पड़ता है |

    जनता अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई से टैक्स रूप में जो धन जिस उद्देश्य से अपनी सरकारों को देती है उसके बदले जनता को वह उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है जनता जिसकी अपेक्षा सरकार से रखती है |

      अनुसंधानों के क्षेत्र में यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जनता को कुछ पता ही नहीं है हम वैज्ञानिक हैं इसलिए हम जो कुछ कह देंगे जनता कुछ सोचे बिचारे बिना ही उसी पर विश्वास कर लेगी !सच्चाई ये है कि अपनी सीमा  जनता भी बिचार करती है जनता के पास भी अपने तर्क होते हैं जनता भी अपने अनुसंधानों को परखना जानती है |  

      मीडिया प्रायः वही बोलता है जो सरकारें बोलवाना चाहती हैं और सरकारें वही बोलती हैं जो अनुसंधानकर्ता बोलवाना चाहते हैं किंतु किसी भी प्राकृतिक बिषय में अनुसंधानकर्ता जो बोलते हैं वो कितना विज्ञानसम्मत है कितना तर्कसंगत है इस पर भी बिचार करने के लिए कोई निष्पक्ष मंच होना चाहिए जहाँ जनता भी अपनी मजबूरियाँ बता सके उन बिषयों में अपनी शंकाओं का समाधान करवा सके | 

         ऐसी परिस्थिति में सरकार अपनी सक्रियता दिखाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं की बातों पर विश्वास जनता को वैसा करने से रोकने लगती है फिरभी जो वैसा करते रहते हैं | उन्हें सरकारें इतने आत्मविश्वास के साथ दंडित करने लगती हैं उन पर जुर्माना लगाती हैं जैसे उस प्राकृतिक आपदा के लिए जनता ही दोषी हो | सरकारों की सक्रियता देखकर ऐसा लगने लगता है कि जनता यदि वैसा करना बंद कर देगी तो सब कुछ ठीक हो ही जाएगा |

     ऐसी परिस्थिति में जिन अनुसंधानों के लिए जनता धन दिया करती है प्राकृतिक आपदा या महामारी के समय उन अनुसंधानों की सहयोगी भूमिका तो कुछ दिखाई नहीं पड़ती है अपितु वही अनुसंधानकर्ता अपनी सक्रियता दिखाने के लिए उस मुसीबत के समय में जनता के कामों में निरर्थक रोड़े अटकाते देखे जाते हैं जिसका दंड तो जनता भोगती है किंतु उसकी सच्चाई कभी प्रमाणित ही नहीं हो पाती है | 

     वायुप्रदूषण बढ़ने के लिए जब जो कारण बताए जाते हैं उनके समाप्त होने के बाद भी प्रदूषण बढ़ता रहता है तो दूसरे कारण बता दिए जाते हैं ऐसे ही तीसरे चौथे पाँचवें छठे आदि कारण बताए जाते रहते हैं एक बीत जाता है तो दूसरा बता दिया जाता है | वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए दीपावली के पटाखों को जिम्मेदार बताया जाता है | इस तर्क के अनुसार तो दीपावली बीत जाने के बाद वायुप्रदूषण समाप्त हो जाना चाहिए यदि समाप्त हो गया तब तो ठीक अन्यथा यदि फिर भी बढ़ता रहा तो पराली जलाने को कारण बता दिया जाता है | पराली का समय बीत जाने के बाद भी वायु प्रदूषण यदि बढ़ता रहा तो सर्दी में एयरलॉक को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है ऐसे ही समय पास करने के लिए और भी बहुत कुछ कहा सुना जाता है सरकारें अनुसंधानकर्ताओं की उन्हीं आज्ञाओं का पालन करती और जनता को दण्डित करती रहती हैं |

     इसी प्रकार से डेंगू होता है तो साफ पानी वाले मच्छरों को कारण बता दिया जाता है |अब सरकारें मच्छरों को खोजने के चक्कर में गमलों ,कूलरों आदि में जिसके यहाँ पानी भरा मिल जाता है उसका चालान करवाने लग जाती हैं | जनता एक ओर डेंगू से दूसरी ओर सरकारी जुर्माने से जूझती है |

     तर्क से देखा जाए तो डेंगू यदि गमलों ,कूलरों आदि के पानी वाले मच्छरों से ही होता है तब तो उसे समाप्त भी तभी होना चाहिए जब गमलों ,कूलरों आदि के साफ पानी वाले मच्छरों से वातावरण को बिल्कुल मुक्त किया जा चुका हो किंतु ऐसा होते तो नहीं देखा जाता है |  

     कोरोनामहामारी के समय में भी ऐसा ही होते देखा जाता रहा !मास्क पहनना,दो गजदूरी और लॉकडाउन आदि जितने भी उपाय वैज्ञानिकों के द्वारा कोरोना संक्रमण से बचने के लिए बताए गए उनका जिन लोगों या जिन देशों ने जिस समय पर पालन किया वे भी संक्रमित होते देखे गए और जिन्होंने ऐसी सावधानियों को बिल्कुल नहीं अपनाया और खुले भीड़भाड़ में घूमते रहे उन्हें भी संक्रमण नहीं हुआ या उनमें से जिन्हें हुआ उन्हें भी बिना किसी चिकित्सा के भी संक्रमण मुक्त होते देखा गया | जिन्होंने वैक्सीन लगवाई उनमें से भी बहुतों को करना संक्रमित होते देखा गया !जिन्होंने वैक्सीन नहीं लगवाई उनमें से भी बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्हें संक्रमित होते ही नहीं देखा गया | 

    वैज्ञानिक तर्क की दृष्टि से यदि देखा जाए तो जिन्होंने मास्क पहनना,दो गजदूरी और लॉकडाउन आदि सावधानियाँ नहीं बरतीं वैक्सीन नहीं लगवाई उन्हें ही संक्रमित होना चाहिए था जिन्होंने वैज्ञानिकों की सलाहें नहीं मानीं या वैक्सीन नहीं ली उन्हें संक्रमित होना चाहिए था किंतु संक्रमित होने और न होने में ऐसे उपायों या वैक्सीन आदि का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव प्रमाणित नहीं हो सका !

      इस बिषय में वैज्ञानिकों और सरकारों की भूमिका के बिषय में बनारस के एक विद्वान एक कहानी सुनाया करते थे कि एक व्यक्ति ने एक प्रेत सिद्ध किया तो प्रेत प्रकट हुआ उसने कहा वरदान माँग लो तो उस  प्रेत से कहा तुम हमारे बश में हो जाओ मैं जो जो कुछ कहूँ तुम वही करते रहो !प्रेत ने उससे कहा ऐसा ही होगा किंतु एक शर्त मेरी भी है मैं कभी खाली नहीं बैठूँगा खाली होते ही तुम्हें ख़त्म कर दूँगा !उस व्यक्ति ने कहा ठीक है शर्त स्वीकार करके उसने अपने दरवाजे पर एक बाँस गाड़ दिया और प्रेत से कहने लगा कि जब तुम खाली होना तो इसी पर चढ़ते उतरते रहना !प्रेत ने कहा ठीक है इस  प्रकार से जबतक कोई काम रहे तब तक प्रेत वह काम करता रहे खाली समय में उस बाँस पर चढ़ने उतरने लगे | 

       विज्ञान जगत के लोग सरकारों को भी इसी प्रकार बशीभूत करके अपनी अँगुलियों पर नचाते रहते हैं | डेंगू आने पर मच्छर मारने का काम पकड़ा देते हैं | महामारी आती है तो जनता को मास्क पहनाने ,दो गज दूरी बनाने और लॉकडाउन लगाने या वैक्सीन लगाने आदि में उलझा दिया करते हैं | प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं तो जलवायु परिवर्तन को कारण बता कर उसे रोकने में लगा दिया करते हैं | मौसम पूर्वानुमान सही न निकले तो उपग्रहों रडारों आदि की संख्या बढ़ाने में उलझा दिया करते हैं|

       कुल मिलाकर प्राकृतिक  आपदाएँ हों या कोरोना जैसी महामारियाँ अपने आप आती और अपने आपसे ही जाती हैं इनमें मनुष्यकृत चिकित्सकीय  प्रयासों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ते नहीं देखा जाता है |जब आधुनिक विज्ञान का जन्म नहीं हुआ था तब भी यही होता था और अभी भी वही हो रहा है | उस समय राजतंत्र होने के कारण राजा को दिखावटी कुछ करने की मजबूरी नहीं हुआ करती थी जबकि अब लोकतंत्र है अब सरकारें इतनी स्वतंत्र नहीं होती हैं इसलिए प्राकृतिक  आपदाएँ हों या कोरोना जैसी महामारियाँ सरकारों को अपनी सक्रियता दिखाने के लिए कोई  बाँस तो चढ़ने उतरने के लिए चाहिए ही होता है वह भले निरर्थक ही क्यों न हो | ऐसा करते रहने से कोई यह तो नहीं कहता है कि सरकार हाथ पे हाथ रखे बैठी रही | इसलिए सरकारों में सम्मिलित लोगों को उतने समय तक उछलकूद करते रहना पड़ता है | अभी तक तो प्राकृतिक आपदाओं और कोरोना जैसी  महामारियों से निपटने में  हमारी रिसर्च के अनुसार विज्ञान की केवल इतनी ही भूमिका है | 

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जिसके कि सरकार हमारे द्वारा दिए गए धन को ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों पर खर्च करेगी जिनसे आवश्यकता पड़ने पर हमें भी कुछ मदद मिल सके | उन अनुसंधानों के द्वारा कुछ ऐसी विशेष जानकारी जुटाई जा सके जिसके द्वारा महामारियों समेत समस्त प्राकृतिक आपदाओं या  प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में पूर्वानुमान लगाया जा सके !इसके साथ ही उन्हीं वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राप्त जानकारी के आधार पर ऐसी प्राकृतिक घटनाओं के स्वभाव प्रभाव आदि को ठीक ठीक समझा  जा सके जिससे ऐसी घटनाओं से बचाव के लिए मार्ग खोजने में मदद मिल सके !

       कहने को तो वैज्ञानिक अनुसंधान हमेंशा  चला करते हैं भले ही उनसे कुछ निकले या न निकले यह दूसरी बात है किंतु उन अनुसंधानों में वैज्ञानिक लोग लगे हमेंशा रहते हैं करते क्या हैं ये नहीं पता है | सरकारें उन अनुसंधानों पर बहुत धन खर्च किया करती हैं किंतु उससे सरकारों को मिलता क्या है या ऐसा करने के पीछे सरकारों की अपनी मजबूरी क्या है ये नाहिंन पता है ऐसा करने से जनता को भले ही कुछ लाभ न होता हो किंतु सरकारों को क्या लाभ होता है ये किसी को नहीं पता है इससे कारों के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाया करती हैं किंतु उनसे निकलता क्या है


 

देती है उसी का कुछ अंश तो सरकार ऐसे अनुसंधानों पर भी खर्च करती है !ऐसी परिस्थिति में महामारीकाल में  वैज्ञानिकअनुसंधान भी अपनी भूमिका कुछ तो सिद्ध कर सकें   महामारी के बिषय में अनुसंधान होने का मतलब ही है कि महामारियों से जूझती जनता को वैज्ञानिक अनुसंधानों से कुछ तो मदद पहुँचाई जा सके !आखिर 

 

      सूखा बाढ़ आँधी तूफ़ान भूकंप जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं से अक्सर जनधन की भारी हानि होते देखी जाती है उस संभावित हानि से जनता को कैसे बचाया जाए ये सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और जनता की इस आवश्यक आवश्यकता को ही केंद्रित करके ऐसे सार्थक अनुसंधान करने या करवाए जाने की आवश्यकता है जिससे जनता की आवश्यक आवश्यकताओं की आपूर्ति को किसी सीमा तक तो सुरक्षित किया जा सके !ये आवश्यक भी है और सरकार का कर्तव्य भी है | ऐसे अनुसंधानों पर खर्च करने के लिए जो धनराशि टैक्स रूप में सरकारें जनता से लेती है उस जनता के प्रति सरकारों की इतनी जवाबदेही तो बनती है -

   "हे जनता जनार्दन !आपसे टैक्स रूप में मैंने जो धन लिया उसका इतना अंश हमने इस इस प्रकार के अनुसंधानों पर खर्च किया उसके बदले में उन अनुसंधानों से हमें इस इस प्रकार की नई नई जानकारी मिली जिससे आप सभी को इस इस प्रकार के संभावित संकटों से बचा पाने में सरकार को मदद मिली तथा इसके अतिरिक्त भी आपके जीवन की कठिनाइयाँ कम करते हुए आपके जीवन को सरल बनाने तथा आपको आवश्यक सुख सुविधा पहुँचाने में सरकार सक्षम हुई है इन अनुसंधानों के बिना सरकार के लिए ऐसा कर पाना संभव न था |"

     ये बात इतने तार्किक ढंग से पारदर्शिता पूर्वक रखी जाए कि अपनी सरकार की बातों पर जनता को भी विश्वास करने में कठिनाई न हो और जनता को भी लगे कि हमारी चुनी हुई सरकार के द्वारा अपने काम काज का संचालन वास्तव में लोकतांत्रिक पद्धति से ईमानदारी पूर्वक जवाबदेही के साथ पाई पाई और पल पल का हिसाब देने की पवित्र भावना के साथ किया जा रहा है | 

      इस प्रकार से एक दूसरे का विश्वास जीतकर ही स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना की जा सकती है | इसी प्रकार की पारदर्शिता पूर्ण नीतियाँ विभिन्न बिषयों पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों को अपनानी चाहिए ताकि उनका जीवन पर एवं उनके पारिवारिक सदस्यों के जीवन पर तथा उनकी सुख सुविधाओं पर सैलरी आदि रूप में व्यय किया जाने वाला जनता का धन जनता को बोझ न लगे | 

     अनुसंधानों का क्षेत्र ही ऐसा है जिसमें लक्ष्य का साधन करने के लिए सही और गलत का बिचार किए बिना वैज्ञानिकों को सभी प्रकार की कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं | इसके बाद ही अनुसंधान जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे सच्चाई सामने आती जाती है और सभी निरर्थक कल्पनाएँ दुविधाएँ स्वयं ही छूटती चली जाती हैं इसी क्रम में धीरे धीरे वह एक ही सच  बचता है जो उस वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया के द्वारा प्राप्त किया गया निश्चित वैज्ञानिक उत्तर होता है | ऐसी जानकारी के गलत होने की संभावना बहुत कम रहती है इस प्रकार का निश्चय हो जाने पर ही अनुसंधान  से प्राप्त ऐसी  जानकारी जनता तक पहुँचाई जानी चाहिए | जनता उसके अनुशार अपनी कार्य योजना बनाती है तभी जनता उसका लाभ उठा पाती है | इसलिए वैज्ञानिक प्रक्रिया के आधार पर जो भी उत्तर खोजै जा सका हो उसका परीक्षण संबंधित घटनाओं के साथ अवश्य किया जाना चाहिए क्योंकि जनता को वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया के बिषय में तो कुछ पता होता नहीं है किंतु घटनाओं से तो उसे ही जूझना पड़ता है इसलिए अनुसंधान से प्राप्त जानकारी के साथ घटनाओं के संबंध को अवश्य सिद्ध किया जाना चाहिए |हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि मानसून आने और जाने की तारीखों के बिषय में लगाया गया पूर्वानुमान भविष्य में सही घटित भी होना चाहिए | 

               पूर्वानुमान गलत होने पर इसके वास्तविक कारण खोजे जाने चाहिए

    जिन वैज्ञानिक प्रतीकों को आधार मानकर मानसून आने और जाने की तारीखों के बिषय में अनुसंधान करके जो पूर्वानुमान बताए जाते हैं वे पूर्वानुमान जितने प्रतिशत सच घटित होते हैं उतने प्रतिशत ही उस अनुसंधान प्रक्रिया को सफल माना जाना चाहिए | यदि उनकी सफलता का प्रतिशत 50 प्रतिशत से भी कम रहता है तो उसे वैज्ञानिक अनुसंधान मानना ठीक नहीं होगा क्योंकि पचास प्रतिशत तक तो उन लोगों के द्वारा लगाए गए तीरतुक्के भी कई बार सही निकल जाते हैं जो बिना किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया के आधार पर अनपढ़ों के द्वारा लगाए जाते हैं | 

        मानसून आने और जाने की तारीखों के बिषय में सही सही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका इसके लिए आवश्यकता तो सही सही पूर्वानुमान लगाने का विज्ञान खोजने की थी उसके आधार पर लगाया गया सही सही पूर्वानुमान जनता के काम तो आता किंतु वह तो किया नहीं जा सका बल्कि पूर्वानुमान न लगा पाने के कारण ही अब तारीखों में ही बदलाव करने की जरूरत समझ ली गई !माना कि ऐसा करके भी कुछ वर्ष या कुछ दशक और इसी बहाने बिता लिए जा सकते हैं किंतु इस प्रकार से जनता की मौसम संबंधी आवश्यकताओं की आपूर्ति कैसे संभव है और मौसम पूर्वानुमान के नाम पर ऐसी कल्पित कहानियाँ सुनाकर समय आखिर कब तक पास किया जा सकेगा |कभी न कभी तो सच्चाई का सामना करना ही होगा कि किसकी लापरवाही के कारण मानसून के आने और जाने के बिषय में सही सही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका या फिर अभीतक जिसे हम मौसम विज्ञान समझते आए हैं उस में ही मौसम विज्ञान जैसे किसी विज्ञान की कोई भूमिका नहीं है यह तो मौसम विज्ञान के नाम पर बादलों की जासूसी करना मात्र है |

      इसलिए अनुसंधानों को उलझाकर नहीं रखा जाना चाहिए अपितु वैज्ञानिक अनुसंधानों के क्षेत्र में पारदर्शिता स्पष्टवादिता सत्य स्वीकार्यता बहुत  आवश्यक है | भारतीय मौसम विज्ञान विभाग यदि अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा बीते 145 वर्षों में मौसम पूर्वानुमान के बिषय में यदि कुछ भी नहीं कर पाया है तो उसे सच्चाई स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए |

       वर्षा आँधी तूफ़ान आदि के बिषय में जिन मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा जहाँ एक ओर तो भविष्य वाणी करने के बड़े बड़े दावे किए जाते हैं उन्हीं भविष्यवाणियों के गलत निकल जाने पर लज्जावश जलवायु परिवर्तन ग्लोबल वार्मिंग जैसे बहाने उन्हीं वैज्ञानिकों के द्वारा बनाए जा रहे होते हैं |ये ढंग ठीक नहीं है | क्योंकि यदि जलवायु परिवर्तन का इतना ही बड़ा प्रभाव है तो बाद में गलत होने से अच्छा है कि मौसम पूर्वानुमानों के नाम पर जानबूझकर झूठी अफवाहें नहीं फैलाई जानी  चाहिए | 

     अलनीनो लानीना जैसी कल्पनाओं के बिषय में भी हमारा यही कहना है कि ऐसी मनगढ़ंत बातों पर एक सीमा तक ही भरोसा किया जाना चाहिए | 2020-21 में लानीना जैसे लक्षणों का अनुभव जिनके द्वारा किया गया उन्होंने ही कहा इस वर्ष लानीना के कारण सर्दी अधिक पड़ेगी किंतु इस वर्ष तो फरवरी से ही तापमान बढ़ने लग गया था | ऐसा होने का कारण पूछे जाने पर उन्हीं के द्वारा कहा गया कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण यह अनुमान सही नहीं निकला !किंतु ऐसा तो कभी भी किसी भी पूर्वानुमान के गलत निकल जाने पर  कहा जा सकता है |ऐसा अन्य घटनाओं के बिषय में भी देखा जा सकता है |



सन 1864 में चक्रवात के कारण कलकत्ते में हुई क्षति और 1866 और 1871 के अकाल के बाद, मौसम संबंधी विश्लेषण और संग्रह कार्य एक ढ़ांचे के अंतर्गत आयोजित करने का निर्णय लिया गया। नतीजतन, 1875 में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना हुई।अब भारतीय मौसम विभाग की स्थापना हुए लगभग 145 वर्ष बीत गए अभी भी यही स्थिति है कि मौसम विभाग के द्वारा पिछले 13 वर्षों से मानसून आने और जाने की तारीखों का पूर्वानुमान लगाया जाता रहा उसमें से मात्र पाँच वर्षों का पूर्वानुमान सही एवं 8 वर्षों का पूर्वानुमान गलत निकल गया |ऐसी परिस्थिति में पूर्वानुमान लगाने के नाम पर लगाए जाने  तीर तुक्कों को पूर्वानुमान कहना सही नहीं होगा | 145 वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी तक इस बात की खोज करना संभव नहीं हो पाया है कि मानसून आने और जाने की तारीखें ही निश्चित की जा सकें |

 

 

यदि वह स्वीकार कर 

 

उनसे कुछ निष्कर्ष भी निकलना चाहिए |इसीलिए प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में किए जाने वाले वैज्ञानिक अनुसंधान  मनुष्यकेंद्रित होने चाहिए जिनका लक्ष्य सूखा बाढ़ आँधी तूफ़ान भूकंप जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में सही सही पूर्वानुमान लगाना हो सकता है |


ताकि ऐसी घटनाओं से जनता कम से कम प्रभावित हो !सबसे पहले यह लक्ष्य बनाकर वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाने चाहिए |


घटनाओं वायुप्रदूषण

 

का उद्देश्य तो जनता के जीवन की संभावित कठिनाइयाँ कम करके उसे विकास के पथ पर अग्रसर करना तथा स्वस्थ एवं सुख सुविधा पूर्ण जीवन उपलब्ध करवाना ही होता है | इसके लिए कोरोना जैसी महामारियाँ भूकंप बाढ़ तूफ़ान वायु प्रदूषण 

 

 


 

 

 

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