कोरोना महामारी पर सबसे बड़ा रिसर्च (वैदिक)

                                           

   प्रायः सभीप्रकार के रोगों के दो ही प्रमुख कारण  होते हैं पहला भ्रष्टाचार और दूसरा ब्यभिचार !ये दोनों ही बड़े विकार सभी स्त्री पुरुषों के लिए रोग कारक होते हैं किसी के व्यक्तिगत जीवन में इस प्रकार के विकार यदि बहुत अधिक बढ़ जाते हैं तो उसके शरीर में अनेकों प्रकार के ऐसे कठिन रोग होने लगते हैं जिनसे मुक्ति मिलना अत्यंत कठिन होता है |ऐसे लोग यदि  भ्रष्टाचार और ब्यभिचार से उपरत होकर प्रायश्चित्त पूर्वक उचित आहार बिहार के साथ आस्तिक भावना से संयमित जीवन जीने का अभ्यास करने लगते हैं तो ऐसे रहन सहन से क्रमशः रोग मुक्त होते चले जाते हैं किंतु जो लोग औषधियों के बल पर ऐसे रोगों से मुक्ति पाना चाहते हैं उन्हें निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि उनका जीवन रोगी रहते हुए ही पूरा होता है इसलिए उन्हें औषधियों के आधीन रहकर ही यथा संभव जीवन जीना पड़ता है |

      ऐसे कठिन रोगों से पीड़ित लोग भी एक तरह से व्यक्तिगत जीवन में महामारी का शिकार हो चुके होते हैं इसलिए महामारी की तरह ही इनके शरीरों में होने वाले रोग भी अपने स्वरूप लक्षण आदि लगातार बदलते रहते हैं रोगों के अंदर कई प्रकार के रोग छिपे होते हैं इसलिए एक रोग की चिकित्सा होती है तो दूसरे रोग प्रकट हो जाते हैं दूसरे की चिकित्सा होती है तो तीसरे रोग प्रकट हो जाते हैं यही कारण है कि अच्छी से अच्छी औषधियाँ भी इनके शरीरों में हुए रोगों से मुक्ति दिलाने में असफल रहती हैं | इसलिए ऐसे रोगों को किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में होने वाली महामारी की तरह ही देखा जाना चाहिए जहाँ रोग का स्वरूप दिन प्रतिदिन बदलता रहता है और चिकित्सा पद्धतियाँ ऐसे रोगियों के आगे बिल्कुल लाचार होती दिखाई  देती हैं | 

      व्यक्तिगत जीवन की  तरह ही भ्रष्टाचार और ब्यभिचार की मात्रा जब किसी जिले प्रदेश देश या संपूर्ण विश्व में बहुत अधिक बढ़ जाती है तब व्यक्तिगत जीवन की तरह ही ऐसे जिले प्रदेश देश आदि में बहुसंख्य लोग एक जैसे कठिन रोगों से पीड़ित होने लगते हैं वह उस क्षेत्र के लिए सामूहिक महामारी होती है जो बहुत ब उसी प्रकार का होता है | 

     व्यक्तिगत महामारी की तरह ही सामूहिक महामारी में भी बड़े  बड़े रोग होते हैं किंतु रोगों के लक्षण स्पष्ट नहीं होते हैं ऐसे समय फैलने ड़े समूह में एक साथ फैलती है भ्रष्टाचार और ब्यभिचार का स्तर जहाँ जैसा होता है महामारी के संक्रमण का स्तर भी वहाँवाले रोगों के अंदर कई प्रकार के रोग छिपे होते हैं एक रोग की चिकित्सा होती है तो दूसरे रोग प्रकट हो जाते हैं और दूसरे रोग की चिकित्सा होती है तो तीसरे रोग प्रकट हो जाते हैं यही कारण है कि अच्छी से अच्छी औषधियाँ भी इनके शरीरों में हुए रोगों से मुक्ति दिलाने में असफल रहती हैं | महामारी के समय कोई एक रोग न होकर अपितु बहुत सारे रोगों का समूह एक साथ होता है किसी एक व्यक्ति में रोग का कोई एक लक्षण प्रमुखता से दिखाई पड़ता है तो दूसरे में दूसरे प्रकार के रोग का लक्षण विशेष अधिक दिखाई पड़ने लगता है ऐसे अलग अलग लक्षणों की न्यूनाधिकता देखने से रोग को समझ पाना आसान नहीं होता है इसलिए ऐसा भ्रम हमेंशा बना रहता है कि महामारी अपना स्वरूप बदल रही है | यही कारण है कि महामारी अपने समय से आती और समय से ही चली भी जाती है किंतु यह भ्रम अंत तक बना रहता है | जिससे रोग का वास्तविक स्वरूप स्वभाव आदि किसी को समझ में ही नहीं आ पाता है और रोग को ठीक ठीक समझे बिना उससे मुक्ति दिलाने में सक्षम कोई औषधि आदि बना पाना संभव ही नहीं होता है | 

     चिकित्सा जगत को महामारियों की समझ भले ही न हो किंतु जब तक महामारियाँ रहती हैं तब तक महामारियों से मुक्ति दिलाने के लिए कोई न कोई प्रयास करते दिखाना उनकी अपनी व्यक्तिगत मजबूरी होती है क्योंकि अपना अस्तित्त्व बनाए एवं  रखने ने लिए कुछ न कुछ उछलकूद इसलिए भी करते रहनी पड़ती है कि उनके अनुसंधानों पर खर्च होने वाला धन उसी जनता का होता है जो महामारी की पीड़ा अकेले सह रही होती है निराश हताश वैज्ञानिक जगत बिल्कुल लाचार होता है | यद्यपि उनके द्वारा की जाने वाली उछलकूद जनता को भले ही कोई मदद न मिल पाती हो किंतु उससे उन लोगों को अपना आस्तित्व  बचाए रखने में बड़ी मदद मिलती है जो महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं | महामारी का संक्रमण जब अपने आप से घटने लगता है तो वे अपने अनुसंधानों के ट्रायल सफल मान लिया करते हैं और जब महामारी समाप्त होने लगती है तब वे उसे अपनी औषधि या वैक्सीन आदि का प्रभाव सिद्ध करने में सफल हो जाते हैं हैं प्रायः महामारियों के समय में इसीप्रकार के बौद्धिक कौशल को देखा जाता है |

      इतनी बड़ी महामारी में महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए सरकारों को भी कुछ न कुछ उछलकूद करते दिखना होता है आखिर वे भी तो जनता के दिए धन से ही संचालित हो रही होती हैं इसलिए उन्हें भी अपना आस्तित्व बचाए रखना आवश्यक होता है |

रोगों का रोगों का समूह विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों को रोग भी अपने स्वरूप लक्षण आदि लगातार बदलते रहते हैं

 

 भ्रष्टाचार और दूसरा ब्यभिचार

 

पाना औषधियों आदि के द्वारा संभव नहीं होता है 

 

का प्रभाव बहुत कम रोगी रहने लग जाता है बनने के मुख्य कारण होते हैं 

       समय अच्छा बुरा  

और भ्रष्टाचार 

      महामारी को प्राकृतिक आपदा माना जाता है इसीलिए प्रकृति में विद्यमान चेतनशक्ति संसार के समस्त पदार्थों के गुण ,स्वभाव प्रभाव आदि को परिवर्तित करके उन्हें निष्क्रिय कर देती है और सृष्टि की समस्त वाग्डोर अपने हाथों में ले लेती है | ऐसा होते ही महामारी के प्रभाव से सर्दी गर्मी वर्षा आदि ऋतुओं का स्वभाव बदलने लग जाता है के समय में 

    उस समय समस्त औषधियाँ औषधीयद्रव्य बनस्पतियाँ आदि अपने अपने गुणधर्म से विहीन होकर अपने से विपरीत स्वभाव वाले गुणधर्म को ग्रहण करने लग जाती हैं| ऐसी परिस्थिति में वे औषधियाँ  जिन रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम मानी जाती रही होती हैं उनमें वो क्षमता नहीं रह जाती है महामारी के समय प्रभाव से कई बार वही वही औषधीयद्रव्य इतने अधिक विकार युक्त हो जाते हैं कि उनका गुणधर्म उनके अपने गुण धर्म के बिल्कुल विपरीत चला जाता है जिससे ऐसे द्रव्यों को सम्मिलित करके जो औषधियाँ बनाई भी जाती हैं उन औषधियों का स्वभाव प्रभाव आदि बिल्कुल बदला होता है |इसलिए महामारी के समय में उन औषधियों की अपनी कोई विशेष भूमिका नहीं रह जाती है | 

      

 

इसलिए जिस बनौषधि को जिस प्रकार के रोगों से मुक्ति दिलाने में पहले सक्षम माना जाता रहा होता है महामारी के प्रभाव से वे बनौषधियाँ उतने समय तक के लिए अपने उन्हीं गुणों को खो दिया करती हैं जिनके लिए वे जानी जाती रही होती हैं |इसीलिए महामारियों में होने वाले रोगों से मुक्ति दिलाने वाली औषधि या वैक्सीन आदि बना पाना लगभग असंभव होता है |

     महामारी से मुक्ति दिलाने वाली औषधि या वैक्सीन आदि न बन पाने का दूसरा बड़ा कारण यह भी है क्योंकि ऐसे समय में सृष्टि की समस्त वाग्डोर सर्वसक्षम प्रकृति के अपने हाथों में होती है |इसलिए महामारी के स्वरूप को जब जैसा जहाँ चाहती है वैसे बदलाव करते चलती है इसलिए महामारी के समय में जो रोग होते हैं उनके अपने वास्तविक लक्षण दिखाई नहीं पड़ रहे होते हैं और जिन रोगों के लक्षण दिखाई पड़ रहे होते हैं वे रोग वास्तव में होते नहीं हैं | 

       इसलिए जिन रोग लक्षणों को देखकर महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए दवा बनाई जाती है वे रोग वास्तव में होते ही नहीं हैं अपितु रोग दूसरे होते हैं और लक्षण किन्ही दूसरे  दिखाई पड़ रहे होते हैं | इसी प्रकार से औषधीय द्रव्य जो होते हैं उनमें उनके अपने वास्तविक गुणों की मात्रा अत्यंत कम हो जाती है और कुछ अन्य द्रव्यगुणों की मात्रा उनमें अधिक बढ़ जाती है | यही कारण है कि अपने वास्तविक गुणों से विहीन और दूसरे द्रव्यों के गुणों से युक्त द्रव्यों के जिस स्वभाव प्रभाव को समझकर जिन औषधियों के निर्माण में है महामारी के समय प्रभाव से वही द्रव्य अपने निजी गुणों से विपरीत असर करते देखे जाते हैं | इसलिए महामारी जनित रोकने में सक्षम औषधियाँ वैक्सीन आदि बनाने में सफलता मिलना असंभव  सा बना रहता है |  

       ऐसी परिस्थिति में जिन रोग लक्षणों को देखकर महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए जो औषधियॉँ वैक्सीन आदि बनाई जाती हैं उनमें पड़ने वाले द्रव्य अपने स्थाई गुणों से युक्त नहीं होते हैं कई बार तो उन द्रव्यों के अपने स्वभाव के विपरीत गुण धर्म की अधिकता उन्हीं द्रव्यों में पायी जाती है |

      इसलिए महामारी के समय में रोगों होने वाले रोगों के लक्षण स्थायी नहीं होते हैं इसलिए हर समय इस बात की आशंका बनी रहती है कि महामारी अपना स्वरूप बदल रही है | इसी प्रकार से महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए के लिए बनाई जाने वाली औषधियों में पड़ने वाले द्रव्य उनके अपने स्थाई गुणों से युक्त नहीं होते हैं उनके भी गुण और स्वभाव में बदलाव होते देखा जाता है |  

 

ने वे समझकर 

 होकर अपितु किन्हीं दूसरे द्रव्यों के गुणों से वे प्रभावित होते हैं गन उनमें न होकर अपितु इसीलिए वे औषधियाँ या वैक्सीन आदि चिकित्सा की दृष्टि से उपयोगी ही नहीं होती हैं इसीलिए वे औषधियाँ या वैक्सीन आदि महामारीकाल में लाभ नहीं करती हैं | 

       इसीप्रकार 

 

एक और होता है | ऐसे समय प्रकृति में विद्यमान चेतनशक्ति

किसी भी रोग को रोकने के लिए या रोग से मुक्ति दिलाने के लिए कोई भी औषधि या वैक्सीन आदि तभी बनाई जा सकती है | जिस रोग के बिषय में जानकारी ही नहीं होती है उससे मुक्ति दिलाने के लिए कोई औषधि या वैक्सीन आदि बना पाना कैसे संभव है | महामारी के समय होने वाले रोगों की औषधि का निर्माण प्रायः रोग के लक्षणों के आधार पर किया जाता  है जबकि रोग लक्षण स्थाई नहीं होते और रोग की प्रकृति स्थाई होती है किंतु उसे खोजना बिलकुल असंभव सा होता है | 

     अधिकसर्दी के लग जाने से ज्वर जुकाम खाँसी सिरदर्द एवं संपूर्णशरीर में दर्द रक्तचाप बढ़ने तथा हार्टअटैक होने जैसी अनेकों प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ होते देखी जाती हैं किंतु सर्दी लगजाने पर किसी एक ही रोगी में सर्दी लगने से  होने वाले सभी प्रकार के लक्षण दिखाई ही पड़ें ऐसा आवश्यक नहीं होता है | सर्दी लग जाने से किसी को ज्वर दूसरे को जुकाम तीसरे को खाँसी चौथे को सरदर्द पाँचवें को बदन दर्द तो किसी किसी को रक्तचाप बढ़ने या हार्टअटैक होने जैसी घटनाएँ घटित होती हैं | 

      ऐसी परिस्थिति में सर्दी के प्रकोप से अलग अलग शरीरों में अलग अलग प्रकार के रोग होते देखे जाते हैं रोगों के अलग अलग लक्षण देखकर तो यह लगता है कि रोग अलग अलग है या फिर रोग स्वरूप बदल रहा है | 

     ऐसी परिस्थिति में रोग की वास्तविक प्रकृति ज्ञान न होने पर लक्षणों के आधार पर चिकित्सा करनी होती है ज्वर हुआ तो ज्वर की दवा और खाँसी हुई तो खाँसी की दवा देनी होती है जो लक्षण दिखाई पड़ते हैं उन्हीं के आधार पर चिकित्सा करने का प्रयास किया जाता है | सर्दी लगने से किसी को ज्वर आया तो ज्वर की दवा देकर ज्वर से मुक्ति दिलाई गई उससे ज्वर उतर जाने के बाद भी सर्दी का प्रकोप पूरी तरह समाप्त न होने से उसे उसी सर्दी के कारण उल्टी दस्त होने लगें इसका मतलब रोग का स्वरूप बदलना नहीं समझा जाना चाहिए अपितु रोग की वास्तविक प्रकृति खोजी  जानी चाहिए | उसी के  आधार पर यदि सर्दी का प्रकोप कम कम करने की चिकित्सा की जाए तो सभी प्रकार के रोगों से एक साथ ही मुक्ति मिल सकती है | 

 

अपितु सभी शरीरों में जैसे लक्षण ने का मतलब यह नहीं होता है कि

      इसलिए किसी रोगी के सर्दी  पर

 

 

 प्रकार दर्द प्रभाव से शीतकाल में किसी   जाने

 

जब उस रोग के बिषय में संपूर्ण जानकारी ही न हो बिषय में

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